May 20, 2013

दहेज मैंने लिया तो नहीं! देनेवालों का क्या करूँ?


कई लोग दहेज प्रथा इसलिए मानते चले आ रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि रीत है, हमेशा से चली आ रही है, इसे बदला नहीं जा सकता! आश्चर्य कि बात है कि महात्मा गांधी और जे पी नारायण जैसे लोगों के देश मे आज भी सुधार कि तरफ पहला कदम उठाने वाले लोगो कि कमी है।



लड़की वाले दहेज देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं, उन्हें अपनी बिटिया को गृहस्थी का सारा सामान और यदि दामाद जी को आवश्यकता है तो नकद राशि भी देनी है ताकि उनकी बिटिया अपने नए जीवन मे प्रवेश करने के बाद सुखी रहे। ऐसी परिस्थितियों मे लड़के वालों को भी लेने से कोई गुरेज नहीं, आखिर लड़की वाले खुद ही तो दे रहे हैं और बिटिया कि खुशी के लिए दे रहे हैं!! क्या सत्य ही दहेज का सामान देने से बेटी के खुश रहने का आश्वासन मिल जाता है? क्या यह संभव नहीं कि नए परिवार का रहन-सहन ऐसा हो कि आपकी बेटी को सामंजस्य बैठाने मे असुविधा हो और वो खुश न रह सके? जहां तक मुझे लगता है, खुशियाँ धन से और भौतिक सुख-संसाधनो से नहीं खरीदी जा सकती, अन्यथा हर अमीर व्यक्ति सदैव खुश रहता, उसे कोई कष्ट न रहता। परंतु क्या सच मे ऐसा होता है?



यदि आपने अपनी बेटी के लिए सही जीवनसाथी चुना है तो वो बिना दहेज के, अपनी मेहनत कि कमाई से ही आपकी बेटी को खुश रख सकता है और यदि इंसान ही गलत हो तो उसे आप खुद को गिरवी रख कर भी संतुष्ट नहीं कर सकते!



ये तो बात थी उन लोगो कि जो स्वयं अपनी इच्छा से दहेज लेते और देते हैं। ये समाज के उस वर्ग के लोग हैं जिन्हें धन-संपत्ति कि कमी नहीं। हाँ, दान देने कि बात हो तो शायद कमी हो, पर विवाह मे खर्च करने के लिये भरपूर पैसा है। और समाज के ये लोग अन्य माध्यम वर्गीय और निम्न माध्यम वर्गीय परिवार के बेटी के पिता के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। लड़के वालो को दहेज चाहिए और जिस पिता ने अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ परिवार कि जरूरतों को पूरा करने मे बिता दी, वो अब अलग से बेटी के लिए दहेज कि रकम कहाँ से लाये? तो क्या गरीब परिवार कि बेटियों कि शादियाँ नहीं होंगी? उन्हें इंतज़ार करते रहना होगा, कब कोई बुद्धिजीवी परिवार उन्हें मिले जो दहेज का विरुद्ध हो और उनकी बेटी के गुणों को पहचाने? ज़रूरी नहीं, कि हर माध्यम वर्ग कि परिवार कि लड़की का भाग्य इतना प्रबल हो कि उन्हें ऐसा वर मिले। क्योंकि ऐसे परिवार तो समाज से विलुप्त होते जा रहे हैं।



तो क्या अब लड़कियों को एक ये भी एहसान का बोझ उठा के जीना होगा कि कौन लड़का उसे बिना दहेज के स्वीकारने को तैयार है? क्या सत्य यह कोई एहसान होगा या हमारे समाज द्वारा बेटी के पैरों मे डाली गयी एक और बेड़ी?

- अपराजिता

May 8, 2013

एक रूप जीवन का ये भी !!


कल अपनी एक सहेली के साथ बाज़ार जा रही थी तो अचानक उसने एक कुत्ते को देखकर कहा,"मुझे ये बहुत भयानक लगता है". मैंने कुछ जवाब नहीं दिया पर मेरा ध्यान उस जानवर की तरफ चला गय. मैंने उसे गौर से देखा, मुझे समझ नहीं आया की उसमे भयानक क्या था? एक कुत्ता जिसके पीछे के दोनों पैर खराब थे, ढंग से चल भी नहीं प् रहा था, आँखों में एक बेबसी सी थी. मुझे वो भयानक ही नहीं लगा. भला एक इंसान के लिए, एक ऐसा जानवर जो ढंग से चल भी नहीं पा रहा, भयानक कैसे हो सकता है?

मैं सोच रही थी जीवन के कितने रूप हैं . इश्वर ने उस कुत्ते को भी क्या ज़िन्दगी बख्शी, उसके दो पैर खराब, किसी ने पाला गले में पट्टा बाँधा और फिर अनजान मोहल्ले में छोड़ दिया. कसूर क्या था, मुझे नहीं पता . लेकिन हाँ , उसकी मुश्किलों का अंत  नहीं , आखिर मोहल्ले के और कुत्ते भी तो है. वो रोज़ अपना रुआब उसपर दिखाते है. क्योंकि पैर खराब होने की वजह से वो कमज़ोर पड़ जाता है तो शायद खा भी नहीं पाता है ढंग से. चुपचाप किसी कोने में बैठा रहता है, कई बार भ्रम सा होता है, शायद मर गया है. पर जानवर आत्म-हत्या नहीं करते, इतनी सामर्थ्य होती है की जीवन कैसा भी मिले वो पूरी शिद्दत से जीते हैं। 

आज उसे कोई व्यक्ति लाठी से पीट रहा था . कुत्ते का सबर इतना की पलटकर एक बार भी वार नहीं किया…. ..शायद वो इंसान नहीं है इसीलिए . व्यक्ति का कहना था की कुत्ता पागल है और किसी को काटा था. मुझे लगा कुत्ता पागल है तो एक बार पलट कर इसे भी काट क्यों नहीं रहा . इस वक़्त तो वो व्यक्ति किसी जानवर से कम नहीं नज़र आ रहा था और वो कुत्ता तो न जाने कितना समझदार लग रहा था . 

उस कुत्ते ने तो अगर किसी को काटा भी होगा तो भी किसी षड़यंत्र के अंतर्गत ऐसा सोच-समझकर नहीं किया होगा. यह तो उसका स्वभाव है, कुछ अस्वाभाविक लगा होगा तो क्रुद्ध होकर काट लिया होगा . परन्तु उस व्यक्ति को क्या कहूं, जिसे इश्वर ने इंसान का जीवन बख्शा और वो इंसान नहीं बन पा रहा ? क्या उसके पास समझने की क्षमता उस जानवर से कम है ?

यह मनुष्यो की वह दुनिया है, जहां लोग परीक्षा में कम अंक आने पर अपना जीवन ख़त्म कर  लेते हैं,क्योंकि उन्हें लगता है की जीवन में अब कुछ बचा ही नहीं…. . वही दुनिया के किसी कोने में कोई  एक वक़्त की रोटी को तरसता है पर फिर भी जीने का हौंसला रखता है. 

यहाँ कोई आत्म-हत्या कर लेता है, क्योंकि घरवाले उसकी शादी उसकी पसंद के इंसान से नहीं करना चाहते, उन्हें लगता है की उनकी ज़िन्दगी सिर्फ उसी व्यक्ति की वजह से खूबसूरत है, और कोई मकसद ही नहीं ........ वही कोई एक दिहाड़ी मजदूर सुबह घर से निकलता है तो उसे पता नहीं होता की शाम को घर में चूल्हा जलेगा भी या नहीं परन्तु वह फिर भी किसी उम्मीद के सहारे रोज़ काम पे जाता है, जी रहा है. 

ये इंसानों की वो दुनिया है, जहां किसी को कूलर में भी गर्मी लगती है, दुखी होते हैं की उनके पास एसी नहीं हैं, वही कोई ऐसा भी है जिसे गर्मी से राहत पाने को सिर्फ एक पेड़ की छाँव की तलाश रहती है. 

मेरी एक सहेली रोज़ मुझसे कहती है की यार मैं अपनी लाइफ से बहुत परेशान हूँ, मेरे ऑफिस वाले जितनी सैलरी देते हैं उसका चार गुना काम करवाते हैं ...... कितना बेकार नसीब है मेरा ....... मैं सोचती हूँ ये नसीब खराब है तो उनका नसीब क्या होता है जो छोटे छोटे दुध्मुहें बच्चों को इस गर्मी के मौसम में कडकडाती धुप में ज़मीन पर लिटाकर सड़क पे गड्ढा खोदते हैं, सब्जी बेचते हैं ? उनकी महनत की कीमत क्या सिर्फ उतनी ही होती है जो उन्हें मिलती है? और उस बच्चे  ने जो अपना तन धुप में जलाया, उसकी कीमत क्या होगी ?

एक हमारे घरों के बच्चे होते हैं, जैसे मेरी एक दीदी हमेशा अपने बेटे की चिंता में रहती हैं, "अरे देखना भैया सीढ़ी की तरफ जा रहा , पकड़ो वर्ना गिर जाएगा. ओह्ह भैया के गले पर शर्ट के कपडे से रशेस आ गये. अरे भैया अमरुद धोकर खाओ वर्ना पेट में कीडे पड़ जायेंगे, तबियत खराब हो जाएगी  ....... सही बात है बच्चों का ख़याल रखना भी चाहिये…. .... पर मैं हमेशा सोचती हूँ की उन बच्चों के पेट में कीडे नहीं पड़ते क्या जो कूडे में से खाना निकाल कर खा लेते हैं ? 

कोई वृद्ध व्यक्ति राह में चलते चलते अचानक गिर जाता है , बड़ी मुश्किल से अपनी लाठी के सहारे उठकर खड़ा होता है , देखकर पता चल रहा है की वो पैदल चल पाने की स्थिति में नहीं, पर वो उठता है, डगमगाते कदमो से आगे बढ़ता है और चलता रहता है. शायद रास्ते में फिर कहीं गिरे, पर घर तो पहुचना ही है .......... और किसी को घर से चार कदम की दूरी की दूकान पर जाने के लिए भी कार चाहिए . 

हम अपने एसी ऑफिसों में दिन भर काम करके कम से कम इतना तो कमा ही लेते हैं की गुज़ारा आराम से चल सकता है . परन्तु दिन भर महनत करके वही एसी ऑफिस बनाने वाले मजदूर इस का १0 % भी नहीं कमा पाते है। उनका तो गुज़ारा भी नहीं चल पाटा होगा पर फिर भी गुज़ारा हो जाता है .......हमारा नसीब उनसे तो अच्छा ही है .

जानवर से बात शुरू करके मैं इंसानों पर आ गयी, इसका अर्थ यह नहीं है की मैंने दोनों को एक श्रेणी में रखा है .....पर हाँ जीवन सबका अनमोल है. मैं सिर्फ यह कहना चाह रही हूँ की आप अपने जीवन की अहमियत समझे साथ ही दूसरों के जीवन की भी कदर करें. फिर वो चाहे जानवर हो या इन्सान. अच्छा-बुरा, सफलता-असफलता, ख़ुशी-गम, प्रतिष्ठा, सम्मान-अपमान, सब हम इंसानों की बनायीं हुई चीज़ें हैं, जबकि जीवन हमे इश्वर ने दिया है. इंसान की बनायीं हुई चीज़ों की वजह से इश्वर की दी हुई चीज़ों का अपमान न करे.  मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज ने ये सब चीज़ीं मनुष्य की सहूलियत के लिए बनायी, अगर ये बंदिशें लगने लगें, घुटन देने लगें तो इनका त्याग करें, कुछ नया सोचें, न की अपने जीवन को त्याग दें ........

दुनिया को करीब से देखिये तो सही, यहाँ लोग हमसे कम साधनों में भी हमसे ज्यादा  सुकून से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं . अपने जीवन की मुश्किलों से हरपल नए ढंग से लडते हैं पर जीने का हौंसला नहीं छोडते क्योंकि जीवन तो इश्वर का वरदान है और हमे इसे संवारने का हरसंभव प्रयास करना है ..... क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

- अपराजिता

May 7, 2013

एक प्रयोग: अपने जीवन के साथ


कई दिनों से मैं ये पोस्ट लिखने की सोच रही थी, परंतु हर बार कुछ न कुछ सोचकर छोड़ देती। लगता, अभी शायद कुछ और समझना बाकी है। शायद कुछ ऐसा हो जो की मेरी नज़र से दूर है और बाकी लोगों को नज़र आता है। बहुत सोचा, समाज की हर चीज़ को बहुत गहराई से समझने की कोशिश की, इन रीतियों को उचित मानने का हरसंभव प्रयास किया, पर फिर भी मेरी आत्मा को ये स्वीकार नहीं ........

क्षमा चाहूंगी, शब्दो मे उलझाने को, परंतु मुख्य मुद्दा तो दहेज है ........... बहुत दिनों पहले एक ब्लॉग पोस्ट की थी मैंने, “यहाँ दूल्हे ढूंढने नहीं, खरीदने पड़ते हैं, लोगों की मिली-जुली प्रतिक्रियाओं ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। परंतु मेरी सोच का दायरा बस यही तक सिमट गया की इसका हल क्या है? क्योंकि मैं अब ये सिद्ध करने की ज़रूरत नहीं समझती की दहेज ने किस कदर हमारे समाज मे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं क्योंकि यह तो सर्वविदित है। कोई स्वीकार न करे वो अलग बात है।

इस सवाल का जवाब ढूँढने मे सबसे पहले एक और सवाल मेरे सामने आया, वो ये की दहेज से सबसे ज़्यादा प्रभावित कौन होता है?’ समाज? दूल्हे के घरवाले? लड़की के घरवाले? या स्वयं लड़की? जवाब हम सभी को पता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है, वो है स्वयं वो लड़की जिसकी शादी दहेज देकर की जा रही है। माता-पिता भी प्रभावित होते हैं, परंतु उनकी परेशानी अलग तरह की होती है। वो चाहते हैं की उनकी बेटी की शादी किसी भी तरह हो जाए, फिर उसके लिए कितना भी धन दहेज मे देना पड़े, वो एकत्र करने को तैयार रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बेटी की शादी जैसे-तैसे कर देना उनकी विवशता है, वरना रिश्तेदार, समाज क्या कहेगा।

परंतु लड़की? उसकी तो पूरी ज़िंदगी का सवाल है। जिन माता - पिता ने उसे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, हमेशा इतना प्यार दिया, दुनिया की सारी बुराइयों से बचाकर रखा, वही आज उसे पराया कर देना चाहते हैं। और सिर्फ इतना नहीं, इसके लिए वो मानसिक और आर्थिक रूप से परेशान भी हैं। कोई भी बेटी अपने माता-पिता को परेशान नहीं देखना चाहेगी, किन्तु वो देखती है, क्योंकि अब शादी करना उसकी भी विवशता है! अन्यथा समाज क्या कहेगा, रिश्तेदार क्या कहेंगे, और सबसे बड़ा कारण उसके माता-पिता व्यथित रहेंगे?’ तो शादी करना ही ज़रूरी लगने लगता है। इतने लोगो को चिंतित रखने से बेहतर लगता है की शादी कर लो ........ जैसे कोई अपने जीवन से तंग आकर आत्म-हत्या तक के लिए तैयार हो जाता है। मेरे मरने से अगर तुम ज़िंदा रहते हो तो ठीक है मैं मर जाती हूँ!

परंतु एक मिनट! क्या सच मे शादी करना विवशता है? ऐसी भी क्या विवशता है की कोई लड़की बिना शादी किए नहीं रह सकती? शादी करना इतना अनिवार्य बनाया किसने? क्या जीवन का एकमात्र लक्ष्य बस शादी कर लेना है (करियर एक अलग चीज़ है)?  और अगर शादी करना इतना अनिवार्य है तो इसमे इतना लेन-देन क्यो? ये अनिवार्यता तो लड़का-लड़की दोनों के लिए हुई?

ये समाज जो बेटी की शादी न होने तक उसके माता-पिता को ताने देकर उनका जीवन दूभर कर देता है, ये वही समाज है जहां एक अकेली लड़की खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती। और शादी करने को बेमन के भी राज़ी हो जाती है, ताकि एक आश्रय मिल सके जहां वह खुद को सुरक्षित महसूस करे क्योंकि माता-पिता जीवन भर उसका साथ नहीं दे पाएंगे। लेकिन मैं पूछना चाहती हूँ, की क्या किसी लड़की का ऐसा सोचना सही हैशादी तो दो दिलों और दो परिवारों का मिलन होता है, क्या उसे इस वजह से बाध्य होकर स्वीकारना उचित है?

जब दहेज से सबसे ज़्यादा प्रभाव लड़कियों पर पड़ता है, तो इसका समाधान भी लड़कियों को ही करना होगा। समाज की इन खोखली रीतियों से खुद को बाहर निकालना होगा। जो समाज एक अकेली लड़की को उपेक्षा की नज़र से देखता है, उसी समाज मे सर उठाकर पूरे आत्म-सम्मान के साथ खुद को स्थापित करना होगा। हमारे समाज की बेटियों को ये ज़िम्मेदारी लेनी होगी को वो दहेज देकर शादी नहीं करेंगी। अगर समाज की हर बेटी यह प्रण ले ले की अपने माता-पिता को दहेज की रकम जुटाने के लिए विवश होते नहीं देखना है तो ही कुछ हल निकाल सकता है। क्योंकि चोट जिसे लगती है, दर्द वही समझता है। जो दर्द बेटियों को सहना पड़ता है, वो किसी और को समझाया नहीं जा सकता अतः समाधान की अपेक्षा भी किसी और से नहीं रखी जा सकती।

तो मेरा ये लेख मेरी उन सारी बहनों को समर्पित है जो अपने माता-पिता को विवश होते नहीं देखना चाहती। जो अपने स्वार्थों मे नहीं घिरी हैं और अपने लड़की होने पर अफसोस नहीं, गर्व करती हैं। यदि आपको लड़की होने पर गर्व है तो कुछ ऐसा काम करिए की वही गर्व आपके माता-पिता को भी हो। आए दिन हम लोग अखबारों मे पढ़ते रहते हैं की लोग बेटियों को जनम से पहले ही या जनम के तुरंत बाद ही मार देते हैं। हम लोग खबर पढ़ते हैं, उन माता-पिता को थोड़ा सा भला-बुरा कहते हैं, और भूल जाते हैं। कभी इस बात पे गंभीरता से विचार किया है की ऐसा क्यों होता है? एक बहुत बड़ा कारण ये है की वो माता-पिता एक बेटी की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते, क्योंकि पहले उन्हें उसकी सुरक्षा का भय रहता है और फिर शादी का! शादी का भय? जी हाँ, क्योंकि शादी के लिए दहेज की रकम जो जमा करनी पड़ेगी, जबकि बेटे के जन्म पे खुशियाँ मनाते हैं क्योंकि उसके लिए इनमे से कोई भय नहीं सताता।

इसलिए मेरा अनुरोध आप सभी बेटियों से है जिनके माता-पिता ने उन्हें जन्म से पहले मार नहीं दिया, आपको अपनी अहमियत खुद सिद्ध करनी होगी। अपने माता-पिता को कभी इस बात पर अफसोस न होने दें की उन्होने एक बेटी को जन्म दिया। हर बेटी मे इतना साहस होना चाहिए की वो बिना शादी के अपनी पूरी ज़िंदगी गुजारने को तैयार रहे। तभी इन दहेज के लोभियों को सबक सिखाया जा सकता है। शादी सिर्फ किसी एक की आवश्यकता नहीं है तो फिर बेटी के माता-पिता अपना सर झुकाकर धन क्यों दें? यदि शादी करनी है तो लड़की को पूरे सम्मान के साथ बिना दहेज के स्वीकार करें और यदि यह संभव नहीं है तो ये ज़िम्मेदारी बेटियों की है की वो ऐसे विवाह से ही इंकार कर दे। आखिर बेटियों के माता-पिता ने कोई गुनाह नहीं किया है उन्हें जन्म देकर, जिसकी कीमत उन्हें समाज को अदा करनी हो।

यही विनती बेटियों के माता-पिता से भी है, क्योंकि उन्हें भी तैयार रहना चाहिए अपनी बेटी के निर्णय मे उसका साथ देने के लिए, बेटी होना कोई जुर्म नहीं, तो बेटी सज़ा क्यों भुगते? मुझे पता है की ये सब लिखना आसान है, पर करना बहुत मुश्किल। वो भी उस समाज मे जहां रोज़ नए कानून बनाए जा रहे हैं देश मे बेटियों को सुरक्षित रखने के लिए! पर एक कदम तो किसी न किसी को उठाना ही होगा।

शादी कभी भी विवश होकर नहीं करनी चाहिए। अगर ये दो दिलों का मेल है, तो दिल मिलने भी चाहिए!! और मुझे नहीं लगता की इसके लिए दहेज का लेन-देन आवश्यक है। मुझे ये भी पता है की एक लड़की खुद भी अपनी शादी को लेकर बहुत सपने सजा लेती है तो उसके लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं, परंतु क्या आप अपने आत्म-सम्मान को गिरवी रख कर एक ऐसे इंसान के साथ फेरे लेने को तैयार हैं जो रिश्तों को पैसों से तोलता हो? कई बार ऐसा भी होता है की बेटियाँ अपने लिए जीवनसाथी खुद ही चुनकर प्रेम मे स्वार्थी हो जाती हैं और खुद अपने माता-पिता को कहती हैं लड़के वालों को दहेज का समान देने के लिए? क्या आप इस श्रेणी मे हैं? तो क्षमा कीजिएगा, मैं स्वार्थी लोगो को कुछ भी समझाने मे खुद को असमर्थ पाती हूँ।

परंतु हाँ, मैं भी एक बेटी हूँ और मुझे पता है की शादी करके अपना घर बसाना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं हैं। मनुष्य का जीवन दुर्लभ है, ईश्वर ने उसे अन्य जीवों से श्रेष्ठ इसलिए नहीं बनाया की वो तरह तरह की रीतियाँ बनाकर दूसरे मनुष्यों का जीवन दूभर कर दे। अपने जीवन को मैं यों किसी और के बने नियमों के अनुसार चलकर व्यर्थ नहीं कर सकती। ये मेरा जीवन है और मैं निर्णय करूंगी की मुझे अपने जीवन को किस तरह जीना है। मुझे रीतियों, परम्पराओं के नाम पर चलने वाली दिशा-हीन भीड़ मे शामिल नहीं होना। मैं एक लड़की हूँ, मैं भी अकेलेपन से डरती हूँ, पर फिर भी अपनी हर डगर पर अकेले चलने का हौंसला रखती हूँ। कभी ठोकर खाकर गिरती भी हूँ, पर फिर संभल जाती हूँ, मैं अपने माता-पिता की बेटी हूँ और उनका गुरूर बन जाना चाहती हूँ। मैं अपने जीवन का कोई भी निर्णय विवशता मे या स्वार्थ के आधीन होकर नहीं लेना चाहती। और एक बात आप सबसे कहना चाहती हूँ, अपने जीवन के लक्ष्य को इतना ऊंचा बनाओ, की राह की छोटी छोटी बाधाएँ आपको लक्ष्य के और करीब ले जाएँ। न की आपको वापिस लौटने पर विवश करें।

ना कहने का महूरत यही है। किसी को ये हक मत दीजिये की वो आपके जीवन का फैसला करे और आपको वो फैसले मानने को विवश करे। फिर वो चाहे कोई भी हो, चाहे आपके होने वाले पतिदेव के घरवाले, चाहे आपके घरवाले, और चाहे आपका कोई बहुत अच्छा मित्र जिससे आप विवाह करने की इच्छा रखती हों। क्योंकि ये जीवन आपका है, और आपको इसे संवारना है और साथ ही समाज की बाकी लड़कियों के लिए एक प्रेरणा भी बनाना है। एक प्रयोग अपने जीवन के साथ करना है।


 - अपराजिता 

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