December 3, 2011

इनका जीवन भी तो जीवन है?

ये ख़याल यू ही मेरे दिमाग में आया था अचानक एक दिन, जब मैं दीदी के साथ किसी काम से बाज़ार जा रही थी. जैसे ही हम लोग एक auto rikshaw में बैठे, उसमे दो छोटी छोटी बच्चियां कहीं से भागती हुई आई और वही सीट के पास नीचे बैठ गयीं. धूल से भरे कपडे, उलझे हुए बाल शायद कभी कंघा किया ही नहीं, चेहरे पे मिट्टी ज़मी थी शायद वो भी धोया नही .............या फिर धोया भी होगा तो पानी से? साबुन तो लगाया नहीं होगा ? हाँ और क्या जब उनके कपडे ही फटे हुए थे साबुन कहाँ खरीदते होंगे? उन लोगों के आते ही एक अजीब सी महक आने लगी थी auto  में और मेरी दीदी ने गन्दा सा मुह बना लिया :(

मैं तो अभी भी उन बच्चियों को देख रही थी और सोच रही थी की इन्हें भला जाना कहाँ है? और इनके पास वहाँ तक जाने के लिए पैसे भी हैं या नहीं? अगर ऑटो वाले ने डांट के उतार दिया तो?  मैं यही सब बातें सोच कर चिंतित और दुखी हो रही थी कि अचानक उन दोनों में जो थोड़ी छोटी बच्ची थी वो अपनी दीदी के कान में कुछ बोलकर खिलखिलाकर हंस पड़ी.... मेरे चेहरे पे भी हँसे आ गयी उसकी मुस्कान देखकर. अब उन दोनों के पास पैसे थे या नहीं ये तो मुझे पता नहीं, पर हाँ ऑटो वाले ने उन्हें उतारा नहीं और वो लोग थोड़ी दूर तक जाने के बाद उतर गयीं. वो दोनों बच्चियां तो ५ मिनट में मेरी आँखों से ओझल हो गयी पर फिर भी एक विचार मेरे मन में छोड़ गयीं. बहुत देर तक मैं उनके जीवन के बारे में सोचती रही..........कहाँ रहती होंगी, दोनों वक़्त का खाना मिल जाता होगा या नहीं? जब ढंग के कपडे भी नहीं थे पहनने को तो स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं उठता?

पर जब जब मैं ये सब बातें सोच के परेशान हो रही थी, उस बच्ची कि निश्छल खिलखिलाती हंसी मेरे कानों में गूँज उठती थी. मैंने सोचा इंसान कैसे भी रहे, किसी भी हाल में रहे, पर ज़िन्दगी अपना रास्ता खोज ही लेती है... वो बच्चियां न जाने कहाँ रहती होंगी, न जाने क्या खाती होंगी, .........पर  एक सच ये भी है के वो कहीं तो रह ही रहीं हैं, कुछ तो खाती ही हैं ! और वो बच्चियां हंस भी रही थी..........उस हंसी में किसी के लिए व्यंग्य नहीं था, कोई जलन कि भावना नहीं थी, कोई दिखावा नहीं था, न ही वो हंसी किसी व्यावहारिकता के लिए थी.......वो हंसी निःस्वार्थ, निश्छल और सच्ची थी और शायद मुझसे ये कहना चाह रही थी कि हम जैसे भी हैं जिस हाल में भी हैं फिलहाल इस पल के लिए खुश हैं......हाँ! सिर्फ इस पल के लिए. क्योंकि न जाने इन बच्चियों का भविष्य क्या होगा?

इनका जीवन भी तो जीवन है! ये विचार पहले भी मेरे दिमाग में आया था, जब मैं कॉलेज में थी. हम लोग अक्सर एक छोटे से ढाबे जैसी दूकान पे चाय और समोसा खाने जाते थे. वहाँ हमारे कॉलेज के ज़्यादातर बच्चे आते थे. वहाँ पे एक छोटा सा बच्चा, शायद उसका नाम 'छोटू' था, हाँ शायद, क्योंकि असली नाम क्या था उसका ये तो किसीको पता नहीं. वो दौड़ दौड़ के सबको चाय और समोसे बांटता था, सबका हिसाब गिनता था, पैसे लेता था, और जाकर मालिक को दे देता था. 'मालिक' मतलब जो ढाबे पे चाय और समोसे बनता था. मैं जितनी देर उस ढाबे पे रहती थी, सोचती थी, कि क्या ये बच्चा पढने जाता होगा? शायद नहीं जाता था क्योंकि बच्चों के स्कूल रात में तो चलते नहीं है! जो बच्चा सबके चाय और समोसे का हिसाब यु ही गिन कर जोड़ लेता था, वो स्कूल नहीं जा सकता था......मुझे अभी भी उसके चेहरे की वो मुस्कान याद है, जब उसे कुछ अतिरिक्त पैसे दे दिए थे, ये कहकर कि 'ये सिर्फ तुम्हारे हैं'.  पर वो दिन भी याद है जब मालिक का बेटा शायद उससे लडाई कर रहा था और वो गिर गया था और चोट लगने पे रोने लगा था. उस वक़्त अभिषेक ने तुरंत उस मालिक के बेटे को डांटा था  और छोटू को चुप करा दिया था शायद toffee  देकर. मैंने सोचा कि अभी तो इसे अभिषेक ने चुप करा दिया, पर ये हमेशा तो छोटू के साथ नहीं रहेगा? तब ये क्या करता होगा? जो लड़का दिन भर सिर्फ एक बनियान पहने दिखता है जिसमें कई छेद हैं......आखिर इसका भविष्य क्या है?

सिर्फ एक और दो नहीं अनगिनत बच्चे हैं जो अपनी ज़िन्दगी अभाव में गुज़ार रहे हैं. फिर वो चाहे वो बच्ची हो जो अचानक मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे भीख में पैसे मांगे लगी थी और मैं चाहकर भी कुछ नहीं दे पायी थी क्युकी उस वक़्त मेरी जेब में पैसे नहीं थे और दीदी ने देने से मन कर दिया था! उसका मानना है कि बच्चों को भीख में पैसे नहीं देने चाहिए वर्ना लोग छोटे बच्चों को पकड़कर जानबूझकर उनसे भीख मंगवाते हैं.....और उस बच्ची को भी मैं भुला नहीं पाती जिसे कुछ लड़कों ने बुलाकर गाना सुना और उसके पैसे मांगने पर डांट के भगाने लगे थे. उस वक़्त भी मेरी जेब में ज्यादा पैसे नहीं थे सिर्फ एक सौ रुपये क़ी नोट थी और मैंने उसे अपने पास बुलाकर वो नोट दे दी थी. बच्ची ने दो मिनट आश्चर्य से मेरी ओर देखा और फिर हंसती हुई खूब तेज़ी से कहीं भाग गयी थी....

और मैं काफी देर तक सोचती रही थी क़ी ये बच्ची इन पैसों का क्या करेगी? शायद घर में जाकर माँ-बाप को दे दे और आज का खाना मिल जायेगा उन लोगों को. या फिर शायद अपने दोस्तों और भाई-बहनों को दिखाकर चिढाना चाहेगी? पर मेरा सवाल अब भी वही था....इसका भविष्य क्या होगा?

मैं कई बार इश्वर से प्रार्थना करती हूँ क़ी वो मुझे इस काबिल बना दे क़ी मैं गरीब लोगों क़ी मदद कर सकूं. पर फिर मैं अपनी खुद क़ी ज़िन्दगी में ही उलझ जाती हूँ. आखिर जिन माँ-बाप ने मुझे जन्म दिया उनके प्रति भी तो मेरा कुछ कर्तव्य बनता है? तो फिर मैं उसे छोड़ के अपना जीवन सिर्फ इस काम में कैसे लगा सकती हूँ? पहले मुझे अपने दायित्व निभाने हैं और उसके बाद अपना उद्देश्य पूरा करूंगी. पर फिर मैं सोचती हूँ के मेरा भविष्य क्या होगा?

क्या पता अपने फ़र्ज़ को पूरा करते करते, बहुत देर हो जाये और मैं अपना सपना पूरा ही न कर पाऊँ? शायद दुनिया के और भी लोग इसीलिए गरीबों क़ी मदद नहीं कर पाते क्योंकि वो अपनी उलझनों को सुलझाने इ लगे हैं? और मैं भी वही कर रही हूँ...तो क्या फर्क रह जाता है? मैं भी तो उसी भीड़ में शामिल हूँ? जो लोग गरीब बच्चों को देखते हैं, तरस खाते हैं, और जेब में जो एक-दो रुपये हैं वो देकर आगे बढ़ जाते हैं?

सोचती हूँ क़ी इस देश का भविष्य क्या होगा? ..............आखिर इन बच्चों का जीवन भी तो जीवन है? तो हम उनको जीने क्यों नहीं देते? आखिर वो बड़े होकर अपने बचपन के बारे में क्या याद किया करेंगे? या फिर क्या वो बड़े भी हो पाएंगे??

August 8, 2011

दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जो आपका स्वभाव है...

मैंने अपने स्कूल की किसी किताब में एक बार पढ़ा था कि , "दूसरों के संग हमेशा वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा आप उनसे अपने प्रति चाहते हैं." मैं तब बहुत छोटी थी पर किताबों में लिखी हुई बातों का अनुपालन करने कि कोशिश बहुत करती थी. लेकिन ज़िन्दगी में बचपन से लेकर आजतक मैंने बस यही समझा कि आप किसी के साथ कितना भी अच्छा व्यवहार करें पर लोग आपके साथ वैसे ही व्यवहार करते हैं जो उनका स्वभाव होता है. तो बेहतर यही है कि आप भी हमेशा अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करें.

यदि  फूल का स्वभाव खुशबू बिखेरना है तो वो वातावरण को सुगन्धित ही करेगा. पर अब क्यूकि फूल सबको खुशबू देता है इसीलिए हम काँटों से भी ये अपेक्षा नहीं रख सकते की वो भी बदले में खुशबू ही दें. वो नहीं कर सकते क्योंकि खुशबू देना उसका स्वभाव नहीं है, खुशबू तो फूल देता है......काँटों का स्वभाव तो चुभना है और वो चुभेगा ही, फिर आप भले ही उसे कितने भी प्यार से रखो....

बस इसी तरह हमें भी अपनी ज़िन्दगी में फूल की तरह सिर्फ अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए. और जिन लोगों का व्यवहार काँटों की तरह चुभता है उन्हें क्षमा कर देना चाहिए क्योंकि उन्होंने बस वैसा ही किया जो उनका स्वभाव है...........

अगर फूल भी कांटे को सबक सिखाने के लिए चुभने लगे या अपनी पंखुड़ियों को सिकोड़कर काँटा बना ले, तो फिर वो अपना अस्तित्व ही खो देगा. उसकी तो पहचान ही बदल जाएगी, दुनिया में एक फूल कम हो जायेगा और एक काँटा बढ़ जायेगा.

इसीलिए अगर भविष्य में आप किसी बुरे व्यक्ति को सबक सिखाने के लिए उसके साथ बुरा बर्ताव करने चलें तो एक बात याद रखियेगा की इससे आपका ही नुक्सान होगा. आप अपना अस्तित्व खो देंगे क्योंकि आपका तो स्वभाव ही नहीं है ये.......आप तो उस बुरे व्यक्ति को सबक सिखाने के लिए उसके जैसा बर्ताव कर रहे हैं. और ये मत भूलिए की ऐसा करके आप दुनिया में बुरे लोगों की संख्या बढ़ा रहे हैं और उस व्यक्ति की ही मदद कर रहे हैं. सोचने वाली बात ये है की, 'जब बुरे लोग बुराई का साथ नहीं छोडते, तो भला अच्छे लोग अच्छी का साथ क्यों छोडें?'


आग को बुझाने के लिए पानी को पानी ही बने रहना होगा, वो आग बनकर आग को नहीं बुझा सकता. दुनिया में जितनी भी चीज़ें हैं, जो भी पशु-पक्षी, जानवर हैं, और जितने भी इंसान हैं, सबका दुनिया में अपना एक महत्व है और उसके बिना इस सृष्टि की कल्पना करना भी असंभव है. आप भी अपने महत्व को समझिये. अगर बनाने वाले ने आपको जानवर नहीं  इंसान बनाया तो उसके पीछे भी एक कारन है. अगर आपका स्वभाव आपके आस-पास के लोगों से मेल नहीं खाता, तो उसकी भी एक वजह है.

वजह एक ये भी हो सकती है की इश्वर खुद ये नहीं चाहते की दुनिया में सब लोग एक जैसे हो. ज़ाहिर सी बात है अगर सब एक ही जैसे हो जायेंगे, हर बात के लिए एक ही जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे, हर काम एक ही ढंग से पूरा करेंगे, कोई भिन्नता ही नहीं रह जाएगी, तो भला जीवन में रह ही क्या जायेगा? फिर तो कोई समस्या ही नहीं आएगी, सबको पता रहा करेगा की अभी ऐसा हुआ है तो इसके बाद कैसा होगा. जैसे आजकल के टी.वी. सीरियल्स की कहानी पहले ही पता लग जाती है.....कोई उत्सुकता ही नहीं रह जाएगी, कोई जिज्ञासा नहीं, सही गलत का अंतर भी नहीं,..........क्या आप ऐसी दुनिया में रहना चाहेंगे?

मुझे तो नहीं रहना... मुझे अच्छा लगता है, सही-गलत का फर्क समझना और फिर सही राह पे चलना, मुझे अच्छा लगता है मुश्किल वक़्त से गुज़रना और अपनी हर समस्या का समाधान ढूंढ लेना, मुझे अच्छा लगता है कुछ खोने के डर से डरना और फिर उस चीज़ को पाकर खुश हो जाना............मुझे अच्छा लगता है...........! हाँ मुझे अच्छा लगता है अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीना, अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना, मुझे अच्छा लगता है....................

- अपराजिता 

August 3, 2011

झूठ की पहचान

झूठ बोलना किसी भी मायने में अच्छा नहीं होता, पर सोचने वाली बात ये भी है की हम लोग झूठ को कैसे पहचानते हैं. कई तरीके हो सकते हैं. एक तो आपको पता है कि सच क्या है और आप जान जाते हैं की सामने वाला व्यक्ति आपसे झूठ बोल रहा है. कभी कभी किसी के बात करने के ढंग से और हाव भाव से हम लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि ये इंसान हमें उलझाने की कोशिश कर रहा है और हमसे झूठ बोल रहा है. तो स्वतः ही हमारी नज़रों में उस इन्सान के प्रति अविश्वास का भाव आ जाता है. एक और तरीक होता है जब हमें लगता है की सामने वाला व्यक्ति हमसे झूठ बोल रहा है पर हमें सच भी नहीं पता होता है. मतलब की हम भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं. 

मुझे तो पहला तरीका बहुत पसंद है. सच में जब आपको पता हो की सच क्या है, उसके बावजूद कोई इंसान झूठ बोलता ही जाए तो उस झूठ को सुनने में भी बड़ा आनंद आता है. आखिर उस इंसान की सचाई जो खुलकर सामने आ रही होती है. हमें भी तो ये जाने का हक़ है न कि सामने वाला व्यक्ति किस स्तर का है और कहाँ तक जा सकता है. इंसान की बिलकुल सही पहचान इस अवसर पे आप कर सकते हैं. तो अगली बार जब कोई आपके साथ ऐसा झूठ बोले जो आपको पता हो की सच नहीं है! तो ये मौका यूँ  ही हाथ से मत जाने दीजियेगा. उस इंसान को परखने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता....

अब दूसरे तरीके पे भी ज़रा गौर करते हैं. असल में इस तरीके में झूठ और सच की पहचान इस बात पे भी निर्भर करती है कि आप सामने वाले के लहजे और भाव मुद्राओं को समझने में कितने समर्थ हैं. क्योंकि  अगर आपको ये विश्वास भी है कि सामने वाला व्यक्ति आपसे झूठ बोल रहा है तो भी धोखे की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. हो सकता है आपसे गलती हो रही हो ! उस इंसान के बात करने का ढंग  ही यही हो? मैंने कई बार देखा है कि कुछ लोग अपने आप को कुछ ज्यादा समझदार दिखाने के चक्कर में अक्सर इस ढंग से बात करते हैं कि बात प्रभावशाली नज़र आने की बजाय झूठी नज़र आने लगती है. लेकिन सतर्क रहिये, ज़रूरी नहीं कि आप गलत ही हैं. खुद पे विश्वास करिए, अक्सर यही होता है कि जो लोग आप पर हावी होने की कोशिश करें, या बार बार सिर्फ एक ही बात पे जोर दें, या बात करते समय इधर उधर देखें, वो अक्सर झूठ बोल रहे होते हैं. तो आप आसानी से पहचान सकते हैं झूठ बोलने वाले लोगों को. और अगर आपने सही पहचाना तो सच मानिए आप बहुत भाग्यशाली हैं क्यूंकि आप एक झूठे दोस्त को अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल करने से बच गए.

एक तरह से देखा जाए तो ये दूसरा तरीका हमारे जीवन में बहुत उपयोगी साबित हो सकता है. इससे हमें ये पहचानने में आसानी हो जाएगी की हमें अपने जीवन में किसका साथ निभाना है और किसका छोड़ना है. पर फिर भी किसी के बारे में अपनी राय कायम करने से पहले ये बहुत ज़रूरी होता है की अच्छे से ठोक बजा कर देख लिया जाये कहीं ऐसा न हो की गलती से हम एक सच्चा दोस्त खो दे. पर हाँ फिर भी ये तरीका कारगर ही है क्यूंकि अगर हमें किसी पे ये शक  है ये वो हमसे झूठ बोल रहा है तो हम उसपर विश्वास नहीं कर सकते. और जहां विश्वास न हो वहाँ विश्वास टूटने का खतरा भी नहीं रहता और न ही अपनों के धोखा देने का दर्द. फायदे ही फायदे..........

दो तरीकों के फायदे निकसान तो देख ही लिए तो भला तीसरे को ही क्यों छोड़ दें? इसे भी अपना कर देखते हैं ज़रा. ये स्थिति अक्सर तब उत्पन्न होती है जब झूठ बोलने वाला इंसान कोई अजनबी नहीं हमारा जान पहचान का होता है और हमारा दोस्त ही होता है. जिसपे हम बहुत विश्वास करते हैं , कभी कभी खुद से भी ज्यादा. पर अचानक ऐसा लगने लगता है की वही इंसान हमसे झूठ बोल रहा है, हमसे कुछ छिपा रहा है! हालांकि हम खुद भी ये विश्वास नहीं कर पाते की वो इंसान हमसे झूठ बोल सकता है, पर फिर भी हमारे मन में शक का कीड़ा तो प्रवेश कर ही चुका होता है, जो धीरे धीरे रिश्तों को खोखला करने लगता है...

अगर आप भी ऐसी स्थिति में हैं, तो सावधान हो जाइये. क्योंकि ये सबसे खतरनाक स्थिति है, जो आपके एक सच्चे रिश्ते को तोड़ भी सकती है और आपको एक झूठे रिश्ते से आज़ाद भी कर सकती है..... पर ये आप पर निर्भर करता है की आप सच के करीब जा रहे हैं या सच से और भी दूर हो रहे हैं. इस स्थिति में कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोचना और अपने रिश्ते की अहमियत को समझना बहुत ज़रूरी है. ज़ल्दबाजी में लिए गए निर्णय से आप खुद को मुश्किल में डाल सकते है .......... यकीन नहीं हो रहा आपको? हम बताते हैं कैसे.........

कई बार हमें ऐसा लगता है की जिस इंसान पे हम भरोसा कर रहे हैं वो ही हमसे झूठ बोल रहा है और हमारी नज़रों में उसके प्रति अविश्वास आ जाता है. पर ऐसा सिर्फ हमारा भ्रम होता है. असल में तो उस इंसान ने सच ही कहा होता है पर हमने  समझने में गलती की होती है या फिर परिस्थितयां ऐसी हो जाती हैं की हमें वो सच झूठ नज़र आने लगता है. और जब ऐसी स्थिति आती है तो एक सच्चा रिश्ता अविश्वास के घेरे में आ जाता है या टूट भी जाता है. हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. हम इतनी ज़ल्दी अंदाज़ा नहीं लगा सकते की सामने वाले ने झूठ बोला.

एक छोटा सा घटनाक्रम बताती हु मैं आपको इसी तरह का, "एक दिन मेरे purse में सौ रुपये ज्यादा थे. मुझे नहीं पता था की वो कहाँ से आये. मेरी दोस्त को कुछ ज़रूरत थी शायद, उसने मुझसे पूछा तुम्हारे पास सौ रुपये हैं. मैंने अपना purse देखा तो उसमे पैसे थे. बस यूँ  ही सौ रुपये ज्यादा देखकर आश्चर्य हुआ तो बोल दिया अरे ये सौ की नोट कहाँ से आ गयी मेरे पास. घर पहुंचे तो पता चला की एक दिन दीदी मेरा purse लेकर कुछ सामान खरीदने गयी थी तो पापा ने उसे सौ रुपये दिए थे जो उसने मेरे purse में रखे रहने दिए. अब अगले दिन मेरी दोस्त ने पूछा, "पता चला वो सौ की नोट किसकी थी?" मेरी कम बोलने की आदत है. मैंने कहा, "दीदी के." अब कुछ ऐसा हुआ की उसके बाद एक दिन और मेरी फ्रेंड ने मुझसे पूछा की वो सौ रुपये किसके थे? अब मेरा जवाब था, "पापा के."...........  अब मुझे नहीं पता की मैंने किस बार झूठ बोला पर उसने दूसरी बार में मुझसे कहा, "इसका मतलब तुमने उस दिन मुझसे झूठ बोला था?"...........

तो झूठ ऐसा भी हो सकता है जब कि आपकी दोस्त ने झूठ बोला ही नहीं पर फिर भी आपको लगा की वो झूठ कह रहा/रही है. तो आप किसी शक में अपने सच्चे दोस्तों को मत खो दीजियेगा क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं और उन्हें सच झूठ के तराजू में नहीं तोला जा सकता......

-अपराजिता 

August 2, 2011

झूठ

झूठ ! झूठ एक ऐसी चीज़ है जिसके बारे में हमें बचपन से यही सिखाया जाता है की कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए. मुझे याद है मेरी बचपन की किसी हिंदी या नैतिक शिक्षा की किताब में एक अलग पाठ था, जो ये शिक्षा देता था क इंसान को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. और तो और एक कविता भी थी, "गडरिये और भेड़" वाली, जिसमें वो गडरिया हमेशा झूठ बोलकर गांववालों को परेशान करता रहता है और एक दिन सच में भेड़िया आकर उसकी भेड़ ले जाता है और उसकी मदद को कोई नहीं आता क्यूकी सब सोचते हैं की वो फिर से झूठ बोल रहा है.....ये कविता तो मुझे आज भी याद है और बहुत अच्छी भी लगती है. हम इसे छोटे बच्चों को सिखाते भी हैं, जिससे की वो लोग कभी झूठ न बोलें............

पर मुद्दा यहाँ ये नहीं है की बचपन में हमने कितने पाठ और कवितायेँ पढ़ीं हैं झूठ न बोलने के बारे में. सोचना तो ये है की जो बात हम लोगों को बचपन से हमेशा सिखाई  गयी उसका अनुसरण हम अपने जीवन में कितना करते हैं?  अरे हाँ हम तो भूल ही गए थे जब थोड़े बड़े हुए, शायद क्लास 6th में, एक और बात सिखाई गयी की झूठ अगर किसी की भलाई के लिए बोला जाये तो वो सच से बढ़कर होता है.  हाँ अब उस भलाई में किस किस तरह की भलाई शामिल है वो शायद नहीं बताया गया था.

शिक्षा का मुख्या उद्देश्य होता है की बच्चा जीवन में गलत सही का अर्थ समझ सके, सभ्य बने, और उसे ज्ञान दिया जाये, और वो उस ज्ञान का प्रयोग अपने जीवन में कर सके. हम लोग शायद अपनी डिग्री का प्रयोग करना तो सीख जाते हैं पर ज्ञान का प्रयोग करना ज़रूरी नहीं समझते. कम से कम उस ज्ञान का तो नहीं जिससे हमें जॉब में promotion नहीं मिलने वाला और जिससे हमारी salary नहीं बढ़ने वाली. मेरा मतलब यहाँ नैतिक शिक्षा की छोटी छोटी बातों से है - जिसमे झूठ न बोलना भी शामिल है.

लोग अक्सर ही अपने रोज़मर्रा के जीवन में झूठ का सहारा लेते हैं, कभी खुद की भलाई के लिए और कभी दूसरों की ! मेरा मतलब कभी खुद को बचाने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी दूसरों को, कभी खुद को सही साबित करने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी अपने दोस्तों को सही साबित करने के लिए, कुछ नहीं तो मज़ाक में तो झूठ चलता ही है, कुछ भी बोलो और फिर कह दो "अरे यार मैं तो मज़ाक कर रहा/रही था/थी." 

झूठ भी सिर्फ झूठ नहीं होता, इसके भी कई रूप होते हैं. झूठ किसी ने अपने फायदे के लिए बोला और आपने समझ लिया तो वो इंसान स्वार्थी नज़र आता है. किसी ने झूठ अपने किसी दोस्त को मुश्किल से बहार निकालने के लिए बोला तो वो परोपकारी नज़र आता है. और झूठ अगर मज़ाक में बोला गया हो तो उसका तो कोई अर्थ ही नहीं, अरे वो तो मज़ाक था, तो वो इंसान भी बड़ा मजाकिया किस्म का नज़र आता है! (हालांकि मुझे विश्वास नहीं की वो मज़ाक ही होता है या कुछ और?)

इस तरह झूठ हमारे जीवन का एक अहम् हिस्सा बनता जाता है और बिना इसके जीवन ही बड़ा मुश्किल नज़र आता है. और बचपन का सिखाया गया पथ वहीँ बचपन की किताबों में रहता है जिसे अब दुसरे बच्चे पढ़ रहे हैं. पर वो भी सीख नहीं रहे होंगे क्यूंकि जब हमने ही नहीं सीखा तो हमारे आने वाली पीढ़ी के बच्चे कैसे सीखेंगे. और याद रखिये की पाठ पढने और सीखने में बहुत अंतर होता है. और सीखे गए पाठ को अपने जीवन में उतारना तो बिलकुल ही अलग काम है और शायद कई गुना कठिन भी....................

-अपराजिता 

July 31, 2011

ऐसा मेरे ही साथ क्यों होता है...

ऐसा मेरे ही साथ क्यों होता है? ये  ख़याल हम सबके के दिमाग में कभी न कभी ज़रूर आ ही जाता है. आपके मन में भी शायद कभी ये विचार ज़रूर आया होगा की "ऐसा मेरे ही साथ क्यों हुआ? बाकी सब तो कितने खुश हैं, कितने आराम से अपनी ज़िन्दगी जीते है? तो फिर मेरे साथ ऐसा क्यों?" है न ? मेरे भी मन में आता है और मेरे कई दोस्तों के मन में भी यही ख़याल आता है. आश्चर्य ! 

कितने आश्चर्य की बात है. हम सब एक दूसरे को जानते भी नहीं, हमारी ज़िन्दगी भी अलग अलग हैं, पर फिर भी एक ही जैसा सोचते हैं ! क्यों? 

क्योंकि हम सब इंसान हैं. कुछ भी हो जाये अपने इंसानी स्वभाव से बाहर नहीं आ पाते. खुशियाँ-गम, सफलता-असफलता, खोना-पाना, हार-जीत, हम सबके जीवन में है. हम सभी ये जानते भी हैं कि ऐसा सिर्फ हमारे साथ ही नहीं हो रहा है और भी कई लोगों के साथ हो चुका है और आगे भी होगा.............पर फिर भी ..."मेरे ही साथ क्यूँ?" ये सवाल पीछा ही नहीं छोड़ता..............

सब कुछ ठीक चलता है जब तक ज़िन्दगी में कुछ बुरा नहीं होता है. जब तक सब कुछ हमारे हिसाब से होता रहता है हम खुश रहते हैं. सब लोग हमारा कहना मानते रहे, सब वैसा ही करें जैसा हम चाहते हैं, हम जो पाना चाहें वो हमें मिल जाये, हमने जिसके संग अच्छा किया वो भी हमारे संग वैसा ही करे! इच्छाएं इतनी की कभी ख़त्म ही नहीं होती............जब तक ये सब सही चलता रहता है हमारे जीवन में हम कभी नहीं कहते की ऐसा हमारे साथ क्यों हो रहा है? सब के साथ होना चाहिए... क्या आपने सोचा है कभी ये जब आप खुश होते हैं? हो सकता है आपने सोचा होगा. पर फिर भी मुझे यकीन है की सबने नहीं सोचा होगा. अरे ख़ुशी में इतनी फुर्सत ही कहाँ होती है की हम दूसरों के बारे में सोच सकें....हम खुद ही इतने व्यस्त रहते हैं की इन बातों का वक़्त कहाँ?

लेकिन जैसे ही हमारे सामने कोई मुश्किल आती है, कुछ हमारे मन का नहीं होता, कोई हमें दुःख पहुचता है, या कुछ बुरा घटित हो जाता है ....तो हम कभी खुद को और कभी ईश्वर को कोसते हैं. और अक्सर सिर्फ एक बात दिमाग में आती है, "मैं ही क्यूँ? ऐसा मेरे ही साथ क्यूँ?" अरे अगर बोलना ही है, तो कहिये, "ऐसा मेरे भी साथ क्यूँ?" क्यूंकि विश्वास मानिए इतना ही दुःख, या इससे भी ज्यादा दुःख और भी लोग झेल चुके हैं और फिर भी अपनी ज़िन्दगी में खुश हैं या शायद उन्होंने अपने ग़मों में हसना सीख लिया है!

जब मैं ऐसी बातें सोचती हूँ तो मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आती है की, "एक इंसान था जो इसलिए रोता रहता था और भगवान् को भला बुरा कहता था, क्यूकि उसके पास जूते नहीं थे. और जब वो चलता था तो उसके पैरों में कांटें और पत्थर चुभते थे और वो दर्द से कराह कर रह जाता था. वो अक्सर ईश्वर से यही प्रार्थना करता था की प्रभु इस बार कम से कम इतनी कृपा करना की मुझे जूते मिल जायें. पर एक दिन वो अपना दर्द भूल गया, जब उसने एक ऐसे इंसान को देखा, जिसके पैर ही नहीं थे.... :( उस दिन उसकी समझ में आया की वो तो अपने को ही बहुत दुखी समझता था, पर इस इंसान के तो पैर ही नहीं हैं.........वो कैसे चलता होगा?"

कहानी में कुछ नया नहीं है. पर फिर भी एक बहुत बड़ी शिक्षा देती है और अगर हम  इस बात को अपने जीवन में उतार लें तो शायद अपने हर दुःख पे इतना ज्यादा निराश नहीं होंगे. जब भी आपको लगे की आप बहुत ज्यादा दुखी हैं हमेशा उस इंसान को देखिये जिसके पास आपसे भी ज्यादा दुखी है. और खुद को खुशकिस्मत समझिये क़ि ईश्वर ने आप पर इतनी कृपा बना राखी है क़ि  उसकी जगह पर आप नहीं हैं.......

मैंने भी अपनी ज़िन्दगी में कई लोग ऐसे देखे जिन्हें बहुत से दुःख थे पर फिर भी उनका ज़िन्दगी के प्रति जज्बा काबिल-ए-तारीफ था. मुझे एक इंसान ऐसा मिला ज़िन्दगी में जिसके पिता नहीं थे और ज़िन्दगी में और भी बहुत से गम थे. सच में उसका दुःख बहुत बड़ा था, इस दुनिया में किसी भी बच्चे को माता-पिता दोनों के प्यार क़ि ज़रूरत होती है और इनमें से अगर किसी एक का भी साथ न हो तो हमेशा ही ज़िन्दगी में एक अधूरापन सा लगता है.......पर फिर मेरी दोस्ती एक ऐसे इंसान से भी हुई जिसके माँ-पिता दोनों ही नहीं थे ........:( क्या करें इस जीवन में कई घटनाएं ऐसी घटित हो जाती हैं क़ि हम चाहकर भी उन्हें रोक नहीं सकते. और इतना ही नहीं, मेरी ये दोस्त इससे भी कहीं ज्यादा परेशान थी क़ि उसके पास माता-पिता का बहुत सा धन भी था तो उसे रिश्तेदारों से कैसे अलग रखा जाये......यही नहीं हमेशा मेहनत ज्यादा करती पर किस्मत साथ न देती. नौकरी मिलकर छूट गयी...........दुःख ही दुःख......पर फिर भी चेहरे पे एक अनवरत मुस्कान उसकी ऐसी खूबी थी जिससे हमेशा ही जीने क़ि प्रेरणा मिलती थी..............पर ये सिलसिला यहीं नहीं ख़त्म हुआ, मैंने एक ऐसी बहनों को भी देखा जिन्होंने अपने माँ-पिता को तो खोया ही, पर क्योंकि वो बहनें गरीब थी और उनकी माँ उनके लिए बहुत सारा धन नहीं छोड़ कर गयी थी , तो रिश्तेदारों ने उन्हें 'अनाथालय' में डाल दिया...........

बस ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है. ये ज़िन्दगी है और सब अपने अपने दुखों में घिरे हैं. हर दिन जूझ रहे हैं अपने दुखों को दूर करने के लिए. जिनके पास खुशहाल परिवार है, उनके पास परिवार क़ि ज़रूरतें पूरा करने के लिए पैसा नहीं है. जिसके पास पैसा है, उसे किसी और चीज़ क़ि कमी है, कुछ नहीं तो हमेशा सेहत ही खराब है. जिसके पास किसी भी चीज़ क़ि कमी नहीं, मतलब पैसा भी है और सेहत भी, तो अकेलापन है, वो भी नहीं तो कुछ और...................हमेशा कुछ पाने में लगा हुआ, हमेशा असंतुष्ट, हमेशा एक अनबुझी प्यास लेकर जीना, यही मनुष्य है और यही उसका जीवन...........

सबके अपने अपने गम हैं. किसी के भी गम नहीं कम हैं. तो सबसे अच्छा तरीका है क़ि अपनी ज़िन्दगी जियो आराम से. और एक आसान तरीका है खुश रहने का, "अगर आप कुछ पाना चाहते हैं और वो चीज़ आपको मिल जाये तो अच्छी बात है, लेकिन अगर न मिले तो और भी अच्छी बात है. क्यूकि इसका मतलब है क़ि ईश्वर ने आपके लिए कुछ और सोच रखा है और वो इससे भी ज्यादा अच्छा होगा..^_^"...........

और अब कभी ऐसा मत कहिये, "हमेशा मेरे ही साथ ऐसा क्यों होता है?" क्यूकि ऐसा आपसे पहले भी कई लोगों के साथ हो चूका है और आगे भी होगा.  B+ yaar...........

- अपराजिता 

क्या लिखूं ...........

क्या लिखूं.............
जब भी मैं कुछ लिखने बैठती हूँ, मेरे मन में पहला ख़याल यही आता है कि क्या लिखूं?
मैं हरपल ये सोचती हूँ कि ज़िन्दगी न जाने कितने ही मौके देती है कुछ सीखने के लिए, समझने के लिए, और लिखने के लिए भी.... मैं जब अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त होती हूँ, अपने आस-पास कि चीज़ों को देख रही होती हूँ, कोई परेशानी झेलती हूँ, कुछ अच्छा होता है, या कुछ बुरा होता है............हमेशा हरपल कई विचार मन में आते हैं, जिन्हें मैं लिख देना चाहती हूँ. मैं चाहती हूँ कि ज़िन्दगी से जो मैंने सीखा, जो मैंने समझा, वो मैं और लोगों के साथ भी बाँट सकूं. 

मैं सबको ये बता सकूं कि जब मेरी पहली जॉब लगी थी तो मुझे कैसा एहसास हुआ था, मैं ये भी बता देना चाहती हूँ कि जब एक गरीब छोटी सी बच्ची मेरे पास भीख मांगने आई थी..........तो मुझे कितना दर्द हुआ था, मैं बता देना चाहती हूँ कि मुझे नहीं अच्छा लगता जब कोई भी इंसान जानवरों को, पेड़-पौधों को, कीट-पतंगों को परेशान करता है, मैं ये भी बताना चाहती हूँ कि इस दुनिया में कुछ लोग जब दूसरों का मज़ाक उड़ाते हैं, उनकी तकलीफों को न समझते हुए उनपर व्यंग्य करते हैं तो भी मुझे कैसा एहसास होता है...........

पर मैं नहीं कर पाती, क्योंकि जो एहसास उस वक़्त होता है, वो लिखते वक़्त नहीं होता. जो मैं उस समय सोचती हूँ, वोही विचार लिखते वक़्त नहीं आते............... तो आखिर मै क्या लिखूं? 

ये ब्लॉग मैंने बनाया है अपने उन्हीं अच्छे-बुरे एहसासों को लिखने के लिए... देखती हूँ कुछ लिख भी पाती हूँ या नहीं. पर हाँ कोशिश ज़रूर करूंगी.............

- अपराजिता 

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