August 8, 2011

दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जो आपका स्वभाव है...

मैंने अपने स्कूल की किसी किताब में एक बार पढ़ा था कि , "दूसरों के संग हमेशा वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा आप उनसे अपने प्रति चाहते हैं." मैं तब बहुत छोटी थी पर किताबों में लिखी हुई बातों का अनुपालन करने कि कोशिश बहुत करती थी. लेकिन ज़िन्दगी में बचपन से लेकर आजतक मैंने बस यही समझा कि आप किसी के साथ कितना भी अच्छा व्यवहार करें पर लोग आपके साथ वैसे ही व्यवहार करते हैं जो उनका स्वभाव होता है. तो बेहतर यही है कि आप भी हमेशा अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करें.

यदि  फूल का स्वभाव खुशबू बिखेरना है तो वो वातावरण को सुगन्धित ही करेगा. पर अब क्यूकि फूल सबको खुशबू देता है इसीलिए हम काँटों से भी ये अपेक्षा नहीं रख सकते की वो भी बदले में खुशबू ही दें. वो नहीं कर सकते क्योंकि खुशबू देना उसका स्वभाव नहीं है, खुशबू तो फूल देता है......काँटों का स्वभाव तो चुभना है और वो चुभेगा ही, फिर आप भले ही उसे कितने भी प्यार से रखो....

बस इसी तरह हमें भी अपनी ज़िन्दगी में फूल की तरह सिर्फ अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए. और जिन लोगों का व्यवहार काँटों की तरह चुभता है उन्हें क्षमा कर देना चाहिए क्योंकि उन्होंने बस वैसा ही किया जो उनका स्वभाव है...........

अगर फूल भी कांटे को सबक सिखाने के लिए चुभने लगे या अपनी पंखुड़ियों को सिकोड़कर काँटा बना ले, तो फिर वो अपना अस्तित्व ही खो देगा. उसकी तो पहचान ही बदल जाएगी, दुनिया में एक फूल कम हो जायेगा और एक काँटा बढ़ जायेगा.

इसीलिए अगर भविष्य में आप किसी बुरे व्यक्ति को सबक सिखाने के लिए उसके साथ बुरा बर्ताव करने चलें तो एक बात याद रखियेगा की इससे आपका ही नुक्सान होगा. आप अपना अस्तित्व खो देंगे क्योंकि आपका तो स्वभाव ही नहीं है ये.......आप तो उस बुरे व्यक्ति को सबक सिखाने के लिए उसके जैसा बर्ताव कर रहे हैं. और ये मत भूलिए की ऐसा करके आप दुनिया में बुरे लोगों की संख्या बढ़ा रहे हैं और उस व्यक्ति की ही मदद कर रहे हैं. सोचने वाली बात ये है की, 'जब बुरे लोग बुराई का साथ नहीं छोडते, तो भला अच्छे लोग अच्छी का साथ क्यों छोडें?'


आग को बुझाने के लिए पानी को पानी ही बने रहना होगा, वो आग बनकर आग को नहीं बुझा सकता. दुनिया में जितनी भी चीज़ें हैं, जो भी पशु-पक्षी, जानवर हैं, और जितने भी इंसान हैं, सबका दुनिया में अपना एक महत्व है और उसके बिना इस सृष्टि की कल्पना करना भी असंभव है. आप भी अपने महत्व को समझिये. अगर बनाने वाले ने आपको जानवर नहीं  इंसान बनाया तो उसके पीछे भी एक कारन है. अगर आपका स्वभाव आपके आस-पास के लोगों से मेल नहीं खाता, तो उसकी भी एक वजह है.

वजह एक ये भी हो सकती है की इश्वर खुद ये नहीं चाहते की दुनिया में सब लोग एक जैसे हो. ज़ाहिर सी बात है अगर सब एक ही जैसे हो जायेंगे, हर बात के लिए एक ही जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे, हर काम एक ही ढंग से पूरा करेंगे, कोई भिन्नता ही नहीं रह जाएगी, तो भला जीवन में रह ही क्या जायेगा? फिर तो कोई समस्या ही नहीं आएगी, सबको पता रहा करेगा की अभी ऐसा हुआ है तो इसके बाद कैसा होगा. जैसे आजकल के टी.वी. सीरियल्स की कहानी पहले ही पता लग जाती है.....कोई उत्सुकता ही नहीं रह जाएगी, कोई जिज्ञासा नहीं, सही गलत का अंतर भी नहीं,..........क्या आप ऐसी दुनिया में रहना चाहेंगे?

मुझे तो नहीं रहना... मुझे अच्छा लगता है, सही-गलत का फर्क समझना और फिर सही राह पे चलना, मुझे अच्छा लगता है मुश्किल वक़्त से गुज़रना और अपनी हर समस्या का समाधान ढूंढ लेना, मुझे अच्छा लगता है कुछ खोने के डर से डरना और फिर उस चीज़ को पाकर खुश हो जाना............मुझे अच्छा लगता है...........! हाँ मुझे अच्छा लगता है अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीना, अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करना, मुझे अच्छा लगता है....................

- अपराजिता 

August 3, 2011

झूठ की पहचान

झूठ बोलना किसी भी मायने में अच्छा नहीं होता, पर सोचने वाली बात ये भी है की हम लोग झूठ को कैसे पहचानते हैं. कई तरीके हो सकते हैं. एक तो आपको पता है कि सच क्या है और आप जान जाते हैं की सामने वाला व्यक्ति आपसे झूठ बोल रहा है. कभी कभी किसी के बात करने के ढंग से और हाव भाव से हम लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि ये इंसान हमें उलझाने की कोशिश कर रहा है और हमसे झूठ बोल रहा है. तो स्वतः ही हमारी नज़रों में उस इन्सान के प्रति अविश्वास का भाव आ जाता है. एक और तरीक होता है जब हमें लगता है की सामने वाला व्यक्ति हमसे झूठ बोल रहा है पर हमें सच भी नहीं पता होता है. मतलब की हम भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं. 

मुझे तो पहला तरीका बहुत पसंद है. सच में जब आपको पता हो की सच क्या है, उसके बावजूद कोई इंसान झूठ बोलता ही जाए तो उस झूठ को सुनने में भी बड़ा आनंद आता है. आखिर उस इंसान की सचाई जो खुलकर सामने आ रही होती है. हमें भी तो ये जाने का हक़ है न कि सामने वाला व्यक्ति किस स्तर का है और कहाँ तक जा सकता है. इंसान की बिलकुल सही पहचान इस अवसर पे आप कर सकते हैं. तो अगली बार जब कोई आपके साथ ऐसा झूठ बोले जो आपको पता हो की सच नहीं है! तो ये मौका यूँ  ही हाथ से मत जाने दीजियेगा. उस इंसान को परखने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता....

अब दूसरे तरीके पे भी ज़रा गौर करते हैं. असल में इस तरीके में झूठ और सच की पहचान इस बात पे भी निर्भर करती है कि आप सामने वाले के लहजे और भाव मुद्राओं को समझने में कितने समर्थ हैं. क्योंकि  अगर आपको ये विश्वास भी है कि सामने वाला व्यक्ति आपसे झूठ बोल रहा है तो भी धोखे की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. हो सकता है आपसे गलती हो रही हो ! उस इंसान के बात करने का ढंग  ही यही हो? मैंने कई बार देखा है कि कुछ लोग अपने आप को कुछ ज्यादा समझदार दिखाने के चक्कर में अक्सर इस ढंग से बात करते हैं कि बात प्रभावशाली नज़र आने की बजाय झूठी नज़र आने लगती है. लेकिन सतर्क रहिये, ज़रूरी नहीं कि आप गलत ही हैं. खुद पे विश्वास करिए, अक्सर यही होता है कि जो लोग आप पर हावी होने की कोशिश करें, या बार बार सिर्फ एक ही बात पे जोर दें, या बात करते समय इधर उधर देखें, वो अक्सर झूठ बोल रहे होते हैं. तो आप आसानी से पहचान सकते हैं झूठ बोलने वाले लोगों को. और अगर आपने सही पहचाना तो सच मानिए आप बहुत भाग्यशाली हैं क्यूंकि आप एक झूठे दोस्त को अपनी फ्रेंड लिस्ट में शामिल करने से बच गए.

एक तरह से देखा जाए तो ये दूसरा तरीका हमारे जीवन में बहुत उपयोगी साबित हो सकता है. इससे हमें ये पहचानने में आसानी हो जाएगी की हमें अपने जीवन में किसका साथ निभाना है और किसका छोड़ना है. पर फिर भी किसी के बारे में अपनी राय कायम करने से पहले ये बहुत ज़रूरी होता है की अच्छे से ठोक बजा कर देख लिया जाये कहीं ऐसा न हो की गलती से हम एक सच्चा दोस्त खो दे. पर हाँ फिर भी ये तरीका कारगर ही है क्यूंकि अगर हमें किसी पे ये शक  है ये वो हमसे झूठ बोल रहा है तो हम उसपर विश्वास नहीं कर सकते. और जहां विश्वास न हो वहाँ विश्वास टूटने का खतरा भी नहीं रहता और न ही अपनों के धोखा देने का दर्द. फायदे ही फायदे..........

दो तरीकों के फायदे निकसान तो देख ही लिए तो भला तीसरे को ही क्यों छोड़ दें? इसे भी अपना कर देखते हैं ज़रा. ये स्थिति अक्सर तब उत्पन्न होती है जब झूठ बोलने वाला इंसान कोई अजनबी नहीं हमारा जान पहचान का होता है और हमारा दोस्त ही होता है. जिसपे हम बहुत विश्वास करते हैं , कभी कभी खुद से भी ज्यादा. पर अचानक ऐसा लगने लगता है की वही इंसान हमसे झूठ बोल रहा है, हमसे कुछ छिपा रहा है! हालांकि हम खुद भी ये विश्वास नहीं कर पाते की वो इंसान हमसे झूठ बोल सकता है, पर फिर भी हमारे मन में शक का कीड़ा तो प्रवेश कर ही चुका होता है, जो धीरे धीरे रिश्तों को खोखला करने लगता है...

अगर आप भी ऐसी स्थिति में हैं, तो सावधान हो जाइये. क्योंकि ये सबसे खतरनाक स्थिति है, जो आपके एक सच्चे रिश्ते को तोड़ भी सकती है और आपको एक झूठे रिश्ते से आज़ाद भी कर सकती है..... पर ये आप पर निर्भर करता है की आप सच के करीब जा रहे हैं या सच से और भी दूर हो रहे हैं. इस स्थिति में कोई भी निर्णय लेने से पहले अच्छी तरह सोचना और अपने रिश्ते की अहमियत को समझना बहुत ज़रूरी है. ज़ल्दबाजी में लिए गए निर्णय से आप खुद को मुश्किल में डाल सकते है .......... यकीन नहीं हो रहा आपको? हम बताते हैं कैसे.........

कई बार हमें ऐसा लगता है की जिस इंसान पे हम भरोसा कर रहे हैं वो ही हमसे झूठ बोल रहा है और हमारी नज़रों में उसके प्रति अविश्वास आ जाता है. पर ऐसा सिर्फ हमारा भ्रम होता है. असल में तो उस इंसान ने सच ही कहा होता है पर हमने  समझने में गलती की होती है या फिर परिस्थितयां ऐसी हो जाती हैं की हमें वो सच झूठ नज़र आने लगता है. और जब ऐसी स्थिति आती है तो एक सच्चा रिश्ता अविश्वास के घेरे में आ जाता है या टूट भी जाता है. हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. हम इतनी ज़ल्दी अंदाज़ा नहीं लगा सकते की सामने वाले ने झूठ बोला.

एक छोटा सा घटनाक्रम बताती हु मैं आपको इसी तरह का, "एक दिन मेरे purse में सौ रुपये ज्यादा थे. मुझे नहीं पता था की वो कहाँ से आये. मेरी दोस्त को कुछ ज़रूरत थी शायद, उसने मुझसे पूछा तुम्हारे पास सौ रुपये हैं. मैंने अपना purse देखा तो उसमे पैसे थे. बस यूँ  ही सौ रुपये ज्यादा देखकर आश्चर्य हुआ तो बोल दिया अरे ये सौ की नोट कहाँ से आ गयी मेरे पास. घर पहुंचे तो पता चला की एक दिन दीदी मेरा purse लेकर कुछ सामान खरीदने गयी थी तो पापा ने उसे सौ रुपये दिए थे जो उसने मेरे purse में रखे रहने दिए. अब अगले दिन मेरी दोस्त ने पूछा, "पता चला वो सौ की नोट किसकी थी?" मेरी कम बोलने की आदत है. मैंने कहा, "दीदी के." अब कुछ ऐसा हुआ की उसके बाद एक दिन और मेरी फ्रेंड ने मुझसे पूछा की वो सौ रुपये किसके थे? अब मेरा जवाब था, "पापा के."...........  अब मुझे नहीं पता की मैंने किस बार झूठ बोला पर उसने दूसरी बार में मुझसे कहा, "इसका मतलब तुमने उस दिन मुझसे झूठ बोला था?"...........

तो झूठ ऐसा भी हो सकता है जब कि आपकी दोस्त ने झूठ बोला ही नहीं पर फिर भी आपको लगा की वो झूठ कह रहा/रही है. तो आप किसी शक में अपने सच्चे दोस्तों को मत खो दीजियेगा क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं और उन्हें सच झूठ के तराजू में नहीं तोला जा सकता......

-अपराजिता 

August 2, 2011

झूठ

झूठ ! झूठ एक ऐसी चीज़ है जिसके बारे में हमें बचपन से यही सिखाया जाता है की कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए. मुझे याद है मेरी बचपन की किसी हिंदी या नैतिक शिक्षा की किताब में एक अलग पाठ था, जो ये शिक्षा देता था क इंसान को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. और तो और एक कविता भी थी, "गडरिये और भेड़" वाली, जिसमें वो गडरिया हमेशा झूठ बोलकर गांववालों को परेशान करता रहता है और एक दिन सच में भेड़िया आकर उसकी भेड़ ले जाता है और उसकी मदद को कोई नहीं आता क्यूकी सब सोचते हैं की वो फिर से झूठ बोल रहा है.....ये कविता तो मुझे आज भी याद है और बहुत अच्छी भी लगती है. हम इसे छोटे बच्चों को सिखाते भी हैं, जिससे की वो लोग कभी झूठ न बोलें............

पर मुद्दा यहाँ ये नहीं है की बचपन में हमने कितने पाठ और कवितायेँ पढ़ीं हैं झूठ न बोलने के बारे में. सोचना तो ये है की जो बात हम लोगों को बचपन से हमेशा सिखाई  गयी उसका अनुसरण हम अपने जीवन में कितना करते हैं?  अरे हाँ हम तो भूल ही गए थे जब थोड़े बड़े हुए, शायद क्लास 6th में, एक और बात सिखाई गयी की झूठ अगर किसी की भलाई के लिए बोला जाये तो वो सच से बढ़कर होता है.  हाँ अब उस भलाई में किस किस तरह की भलाई शामिल है वो शायद नहीं बताया गया था.

शिक्षा का मुख्या उद्देश्य होता है की बच्चा जीवन में गलत सही का अर्थ समझ सके, सभ्य बने, और उसे ज्ञान दिया जाये, और वो उस ज्ञान का प्रयोग अपने जीवन में कर सके. हम लोग शायद अपनी डिग्री का प्रयोग करना तो सीख जाते हैं पर ज्ञान का प्रयोग करना ज़रूरी नहीं समझते. कम से कम उस ज्ञान का तो नहीं जिससे हमें जॉब में promotion नहीं मिलने वाला और जिससे हमारी salary नहीं बढ़ने वाली. मेरा मतलब यहाँ नैतिक शिक्षा की छोटी छोटी बातों से है - जिसमे झूठ न बोलना भी शामिल है.

लोग अक्सर ही अपने रोज़मर्रा के जीवन में झूठ का सहारा लेते हैं, कभी खुद की भलाई के लिए और कभी दूसरों की ! मेरा मतलब कभी खुद को बचाने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी दूसरों को, कभी खुद को सही साबित करने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी अपने दोस्तों को सही साबित करने के लिए, कुछ नहीं तो मज़ाक में तो झूठ चलता ही है, कुछ भी बोलो और फिर कह दो "अरे यार मैं तो मज़ाक कर रहा/रही था/थी." 

झूठ भी सिर्फ झूठ नहीं होता, इसके भी कई रूप होते हैं. झूठ किसी ने अपने फायदे के लिए बोला और आपने समझ लिया तो वो इंसान स्वार्थी नज़र आता है. किसी ने झूठ अपने किसी दोस्त को मुश्किल से बहार निकालने के लिए बोला तो वो परोपकारी नज़र आता है. और झूठ अगर मज़ाक में बोला गया हो तो उसका तो कोई अर्थ ही नहीं, अरे वो तो मज़ाक था, तो वो इंसान भी बड़ा मजाकिया किस्म का नज़र आता है! (हालांकि मुझे विश्वास नहीं की वो मज़ाक ही होता है या कुछ और?)

इस तरह झूठ हमारे जीवन का एक अहम् हिस्सा बनता जाता है और बिना इसके जीवन ही बड़ा मुश्किल नज़र आता है. और बचपन का सिखाया गया पथ वहीँ बचपन की किताबों में रहता है जिसे अब दुसरे बच्चे पढ़ रहे हैं. पर वो भी सीख नहीं रहे होंगे क्यूंकि जब हमने ही नहीं सीखा तो हमारे आने वाली पीढ़ी के बच्चे कैसे सीखेंगे. और याद रखिये की पाठ पढने और सीखने में बहुत अंतर होता है. और सीखे गए पाठ को अपने जीवन में उतारना तो बिलकुल ही अलग काम है और शायद कई गुना कठिन भी....................

-अपराजिता 

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