July 29, 2012

हम सब जा किधर रहे हैं?

कल मैंने एक बहुत ही अजीब सपना देखा. मैं खुश थी और खिलखिलाकर हंस रही थी....बहुत ही ज्यादा अजीब था. ऐसा शायद बहुत बचपन में कभी हुआ होगा की मैं इतनी ख़ुशी से हंसी हूँ...बहुत देर तक वो सपना मेरे दिमाग में घूमता रहा. मैं सोचती रही की अंतिम बार ऐसा कब रहा होगा की मैं खुश थी. कुछ ठीक से याद नहीं आया और मैं अपने सपने वाली हंसी की खनखनाहट में गुम हो गयी....

सोचने लगी की ये मैं ज़िन्दगी के किस मुकाम पे आ गयी हूँ...जहां हंसी मुझसे कोसों दूर है. सुकून की तलाश में भटक रही थी और उसी को खोती जा रही हूँ. अब ये आलम रहता है की किसी भी बात का कोई असर ही नहीं होता. घर में ख़ुशी का माहौल हो, सब खुश हो, तो भी मैं वही अपनी उलझनों में और घर में सब परेशान हो, तो भी मैं वही अपनी उलझनों में.......मेरे एहसास नहीं बदलते, मेरे चेहरे के भाव नहीं बदलते. 

वो बचपन था जब सपने देख कर भी ख़ुशी मिल जाती थी और अब सपने देखने में भी डर लगता है.  वो बचपन था जब race में जीतने में और क्लास में फर्स्ट आने में ही सफलता का एहसास होता था, आनंद मिलता था. और अब का समय है की एक चीज़ हासिल हो तो उससे बेहतर प़ा लेने की महत्वाकांक्षा बढती जाती है. मैं दिन रात अपने काम में उलझी हुई, लोगो की अलग-अलग तरह की मानसिकताओं को झेलती हुई, अपने परिवार की आशाएं पूरी करने और अपना भविष्य सुरक्षित करने में प्रयासरत होकर ये भूल ही गयी थी की मैं वही हूँ जिसने कभी भी इन चीज़ों में अपनी ख़ुशी को नहीं देखा था.....

फिर आखिर मैं ये किस दिशा में आगे बढती जा रही हूँ? क्या ये उसी मंजिल का रास्ता है जो मैं पाना चाहती थी? जवाब शायद नहीं है, पर फिर क्यों? क्यों मेरा जीवन बस इतने से दायरे में सिमट कर रह गया है?

हाँ मुझे दिन-रात काम में व्यस्त रहना पसंद है, मेरी हमेशा की आदत है. जब तक स्कूल/कॉलेज में थी तो पढाई में व्यस्त रहती थी और जब जॉब मिली तो ऑफिस के काम में डूब गयी. पर सवाल मेरा अब भी वही है की क्या ये उसी मंजिल का रास्ता है? हाँ मुझे खुद को साबित करना था, अपने अस्तित्व के लिए लड़ना था, पर ये रास्ता नहीं चुनना था. इस राह पे बढते हुए खुद को खो देने का डर सताने लगा है. खुद से ज्यादा दूसरों की ख़ुशी ओ अहमियत देते-देते, खुद के अस्तित्व को खो देने का डर सताने लगा है.

अभी व्यस्त हूँ अपने आस-पास की चीज़ों को व्यवस्थित करने में, ताकि फिर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकूं. परन्तु सोचती हूँ की सब कुछ व्यवस्थित करने में कहीं इतनी व्यस्त न हो जाऊं की मैं अपना लक्ष्य ही भूल जाऊं? नहीं, ऐसा तो नहीं होगा. पर क्या ये दायरा कभी इससे बड़ा हो पायेगा? 

अपने आस-पास के लोगो को देखती हूँ, सबको अपनी-अपनी मुश्किलों में उलझा हुआ पाती हूँ. यहाँ हर इंसान रोज़ सुबह अपने घर से अपनी हर परेशानी का हल ढूँढने निकलता है और फिर शाम को कुछ नयी उलझनों के साथ लौट आता है. ये चक्र इसी तरह चलता जा रहा है. सोचती हूँ आखिर हम सब जा किधर रहे हैं? क्या है जो प़ा लेना चाहते हैं? हर इंसान की वही कहानी है और हर इंसान विशिष्ट है. क्या ज़िन्दगी सच में इतनी मुश्किलों से भरी है? क्या इसमें कुछ आसानियाँ नहीं लायी जा सकती? 

शायद हमारे प्रयासों में ही कमी है या हम गलत दिशा में प्रयासरत हैं? 
- अपराजिता   

2 comments:

  1. khud ko kho dene ka dar ya ki apne laxya ko bhool jane ka dar bas yahi bat aapko aapki kamyabi dilaati hai aapko auron se alag banati hai.....Bahut hi bhavnaatmak lekh hai Aprajita ji

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