November 2, 2012

क्या ये प्यार है?


क्या ये प्यार है? कई बार कुछ लोगों को देखकर मेरे मन में ये विचार आ ही जाता है और मैं सोचने को मजबूर हो जाती हूँ कि क्या यही प्यार है? सोचती हूँ की दुनिया कितनी सिमट गयी है , लोगों को आजकल फेसबुक पे प्यार हो रहा है। एक तरफ दूरियां कम हो रही हैं, तो दूसरी तरफ बढती नजदीकियां भी मुश्किलें खड़ी कर रही हैं . अब लोग इन्टरनेट पे मिलते हैं, messages से बात होती है, दोस्ती होती है, फिर दोस्ती इतनी बढ़ जाती है की उसे प्यार का नाम मिल जाता है, फिर वही भावनाएं, साथ निभाने की कसमें, फिर कसमों का टूटना, और फिर ??

रिश्ता जब बिना किसी आधार के जुड़ता है तो वो उसी तरह ख़त्म भी हो जाता है। और अगर कोई सोच समझ कर बस आपके जज्बातों के साथ खेलना ही चाहता हो तो ये सब और भी आसान हो जाता है। पहले 'hi', 'hello ' हुआ, फिर 'हाल-चाल' , फिर 'पसंद-नापसंद' , फिर 'जानू खाना खाया या नहीं? देखो खा लेना ज़रूर से वर मैं भी भूखा/भूखी रहूँगा/गी', और फिर 'डार्लिंग समझो मेरे पास टाइम नहीं है बात करने को।'  मतलब पहले किसी से थोड़ी सी जान पहचान हुई, फिर उसकी पसंद -नापसंद को समझा, और फिर शुरू दिल जीतने योग्य की जाने वाली बड़ी बड़ी बातें। कभी कभी ये बातें इतनी लम्बी हो जाती हैं की पहले फेसबुक (लॉग इन थ्रू कंप्यूटर), फिर फेसबुक (लॉग इन थ्रू मोबाइल), फिर हमारे मोबाइल का SMS पैक कब काम आएगा, फिर आवाज़ सुनने की तमन्ना हुई तो कॉल करके ही बात कर लेते हैं!!!  तो भैया 'unlimited talking ' ज़ारी है और इस वक़्त उस लड़के से ज्यादा आदर्शवादी, सिद्धांतवादी,  सुयोग्य व्यक्ति दुनिया में कोई और नहीं और उस लड़की से ज्यादा सुन्दर, समझदार, सुशील कन्या कोई और नहीं ........... (भले ही बड़े की पहले किसी और के बारे में यही धारणा रही हो ! क्या फर्क पड़ता है .........व्हेन लव इस इन एयर ). कुछ दिन, महीनों, (निर्भर करता है कौन कितने वक़्त तक साथ दे पाए) सब बहुत अच्छा चल रहा है, जैसे ज़िन्दगी में कोई नयी उमंग , कोई नया मकसद मिल गया हो और फिर धीरे धीरे इन्ही नजदीकियों में दूरियां घर बनाने लगती हैं क्योंकि संभवतः दोनों में से कोई एक इंसान इस रिश्ते में उतना गंभीर नहीं था जितना की किसी एक ने समझ लिया। फिर सिलसिला शुरू हो जाता है किसी के काम में व्यस्त रहने का और किसी का इंतज़ार में पड़े रहने का !! कोई एक है जो बात करना नहीं चाहता और दूसरा बात किये बिना रहना नहीं चाहता। कोई एक है जो ये सच स्वीकार करना नहीं चाहता की उसने कभी प्यार किया ही नहीं था और कोई एक है जो ये सच समझना ही नहीं चाहता ......................सपने टूटते हैं, भावनाएं आहत  होती है, सच है कि दुःख तो बहुत होता है। कई बार तो नौबत जान देने की आ जाती है, लोग निराशा के अँधेरे में चले जाते हैं (depression), डॉक्टर की मदद लेनी पड़  जाती है, किसी का ज़िन्दगी से विश्वास उठ जाता है, किसी का प्यार से, और कोई सकरात्मक सोच लिए फिर से नयी दिशा में कदम बढाता ह।


पर निष्कर्ष ये की ये किसी/कोई वाले बन्दे न तो पहले कुछ महान कार्य कर रहे थे और न ही अभी (break up के  बाद?).................... तो क्या ज़िन्दगी में सबसे महत्त्वपूर्ण काम बस यही होता है ? किसी से प्यार करो, शादी करके घर बसा लो, नौकरी मिल जाये, और बस रहो सुकून से? क्या इसके आगे ज़िन्दगी नहीं? पहली बात तो ये की "इंसान की सही पहचान उसकी कही हुई बड़ी बड़ी बातों से नहीं बल्कि उसके स्वभाव की छोटी छोटी आदतों से होती है" , इसलिए अगर आप सिर्फ फेसबुक message या फ़ोन पे कही किसी की बड़ी बड़ी बातों पे विश्वास करके उसे बहुत ऊंचा दर्ज़ा देने जा रहे हैं अपने जीवन में तो एक बार फिर से सोच लीजिये। क्या ज़रूरी हैं कि सच भी ऐसा ही होगा? जब आप किसी से मिले नहीं, किसी को जानते नहीं, तो सिर्फ उसकी बातों पे भरोसा करके अपनी भावनाएं उस इंसान के साथ जोड़ लेना क्या उचित होगा? और फिर क्या होगा जब उसकी बातें उसकी चरित्र के विपरीत निकली? मुझे ये लगता है की अच्छा बोलना बहुत आसान होता है, परन्तु जो आप बोल रहे हैं उसे अपने स्वभाव में लाना और वैसा ही जीवन जीना बहुत मुश्किल होता है। और ये अपेक्षा आप किसी ऐसे इंसान से कैसे कर सकते हैं जिसका अधिकाँश समय बस आपको message करने में और आपसे बात करने में जा रहा है? और आपको इस बात पे कितना भरोसा है की वो आपके सिवा किसी और से भी बात करने में इतना ही वक़्त नहीं दे रहा होगा? 

दूसरी बात, जब आप किसी से बात करने में इतना वक़्त दे ही रहे हैं तो क्या कभी आपने रुक कर ये सोचा की ये कितना उपयुक्त है? क्या आपको नहीं लगता की जो वक़्त आपने किसी की फ़ालतू बकवास (अच्छा बकवास नहीं प्यार भरी बातें ही सही) या किसी से यु ही ज़िन्दगी की बातें discuss करने में, या  जताने वाली सामान्य बातों (जैसे तुमने खाना खाया या नहीं ? खाया तो क्या खाया ? और नहीं खाया तो क्यों नहीं खाया? ), मतलब आपने अपना जो कीमती वक़्त इन बातों को करने में दिया, क्या उसका इससे बेहतर और कोई उपयोग नहीं हो सकता था ? यही सब बातें बेमानी लगने लगती हैं जब मालूम चलता है की आप जिसे अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ख़ुशी समझ बैठे थे असल में तो वो इंसान सिर्फ आपके जज्बातों का फायदा उठा रहा था? तो फिर इतना ज्यादा वक़्त आप किसी और पे बर्बाद करने की जगह खुद पे ही दें तो क्या ज्यादा बेहतर नहीं होगा? 

पहले इन्टरनेट चाहिए होता है स्कूल/ कॉलेज के प्रोजेक्ट के लिए, प्रेजेंटेशन के लिए, और फिर इस्तेमाल होने लगता है सोशल नेटवर्किंग साइट्स के लिए, चैटिंग के लिए ! मैं ये नहीं कह रही की ये पूर्णतया गलत है न ही मैं इन्टरनेट या सोशल नेटवर्किंग साइट्स के खिलाफ हूँ। पढाई के साथ अन्य चीज़ों के लिए इन्टरनेट का इस्तेमाल गलत नहीं है और न ही किसी से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पे दोस्ती करना गलत है, और न ही किसी से चैटिंग करना गलत है, परन्तु "अधिकता हर चीज़ की बुरी होती है।" किसी को बिना जाने समझे उस पर अँधा विश्वास कर लेना गलत है। वो भी तब जब इससे आपकी भावनाएं जुडी हों। 

बहुत आसान होता है किसी की पसंद-नापसंद को समझना और फिर उसी के अनुरूप बात करना अगर सामने वाली के इरादे नेक न हो .........और लोग इसे प्यार समझ लेते हैं। "ओह माय गॉड ! उसकी पसंद मेरी पसंद से कितनी मिलती है। वी आर मेड फॉर ईच अदर ." अरे भैया कुछ पसंद सबकी कॉमन होती हैं, तो क्या हुआ अगर मुझे एकांत में रहना पसंद है और आपको भी ! और फिर सामने वाले ने तो बहुत अच्छे से आपकी हर पसंद का निरीक्षण किया है। धीरे धीरे यही सब बातें इतना गंभीर रूप ले लेतीं हैं कि उनसे बहार निकलना मुश्किल हो जाता है। 

उस पर सहयोग देते हैं प्यार के, मिलन के, जुदाई के, संदेशों से भरे फेसबुक के पेज और बोनस हमारे आजकल के टीवी serials और मूवीज। सब ऐसा दिखाते हैं जैसे दुनिया में प्यार करने और शादी करने से ज्यादा ज़रूरी काम तो कुछ और है ही नहीं। मूवीज की तो बात ही न करें उनका लेवल थोडा ज्यादा ही हाई हो जाता है ! पर हमारे टीवी सीरिअल्स कम नहीं हैं, पहले शुरुआत होगी एक गरीब घर से किसी सामाजिक समस्या को लेकर, फिर उस गरीब लड़की/लड़के को प्यार होगा किसी अमीर लड़के/लड़की से, फिर प्यार में कठिनाईयां , शादी में रुकावटें, और फिर अंत में प्यार की जीत, हो गयी शादी, लड़का-लड़की दोनों अमीर ..........समस्या समाप्त। अरे भैया थोडा ब्रेक लो आखिर ये अमीर लोग काम क्या करते हैं? हमेशा तो घर में रहते हैं या सीरिअल की नायक/नायिका के साथ ? फिर अगला प्रश्न एक अमीर घर में शादी करके सिर्फ एक व्यक्ति की समस्या का ही तो समाधान हुआ और बाकी के लोगो का क्या जो वही सामाजिक समस्याएं झेल रहे हों ?

सब कुछ बहुत अच्छा लगता है, जब तक यथार्थ के धरातल पे न रखा जाये। कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि कॉलेज के समय या कभी भी किसी से प्यार करते हैं, उस वक़्त उनका प्यार उसी एक इंसान के लिए सच्चा होता है, उसके लिए करवा चौथ भी रह लेंगे, और फिर पता चलता है कि शादी तो किसी और से की ! अब मुझे कोई ये बताये की पहले वाला प्यार सच्चा था या शादी के बाद वाला ? पहले किसी के लिए करवा चौथ किया अब किसी और के लिए? इतना आसान भी नहीं होता जीवन में किसी एक की जगह किसी दुसरे को दे देना और वो भी तब जब की वो एक आपके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा हो !!

कुछ लोग तो और भी ज्यादा होशियार होते हैं, वो दोस्ती ही करते हैं अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए और काम पूरा होने के बाद टाटा बाय बाय ! जैसे की कॉलेज में कोई पढने में बहुत अच्छा हुआ तो प्यार कर लो, एग्जाम में अच्छे नंबर मिलना थोडा आसान, और फिर कॉलेज ख़तम तो प्यार भी ख़तम ...........ऐसे ही और भी कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका प्यार बहुत मज़बूत होता है, वो शादी भी करते हैं, फिर शादी के 2-3 साल बाद पता लगता है कि किसी और से इससे भी ज्यादा सच्चा प्यार हो गया, तो भैया तलाक भी कर लेते हैं !!! जितने लोग उतनी कहानी और सबकी कहानी वही ...........

मैं ये नहीं कह रही कि सबको प्यार में धोखा मिलता है या सबका प्यार झूठा होता है। बस कभी इंसान गलत मिल जाता है, कभी मंजिलें अलग हो जाती हैं, और कभी परिस्थितियाँ ही विपरीत हो जाती हैं। प्यार तो एक बहुत ही खूबसूरत एहसास है जो की सभी को महसूस होना ही चाहिए। प्यार इतना छोटा शब्द नहीं जो किसी एक इंसान या किसी एक रिश्ते पे ही सिमट जाये। प्रेम तो बहुत पावन होता है, पवित्र होता है। सबसे पहले तो आप अपने माता-पिता से प्रेमा करण सीखिए, फिर अपने आप से, फिर अपने परिवार के हर सदस्य से जिन्होंने आज तक आपका इतना साथ दिया, फिर अपने आस-पास के हर जीव से, हर चीज़ से प्रेम करके देखिये! सच मानिए, एक अदभुत अनुभूति होगी। और जब आप प्रेम का सही अर्थ समझने लगे तो अपने लिए एक जीवन साथी चुने , चाहे पहले प्रेम करें फिर जीवन भर साथ निभाएं, या पहले जीवन भर साथ निभाने की कसमें खा लें, फिर प्रेम करें। किसी को प्रेम करना इतना कठिन नहीं के उसके लिए आपको किसी की पसंद-नापसंद, व्यवहार, आदतों,विचारों का निरीक्षण करना पड़े ...............और फिर "प्यार तो अँधा होता है और जो सोच समझ कर किया जाए वो प्यार नहीं होता।" प्यार तो वो अहसास है जिसमे आप किसी को अपनी हर चीज़ देकर भी अफ़सोस नहीं करते, क्योंकि प्यार लेना तो जानता ही नहीं है वो सिर्फ देना जानता है। प्यार वो भावना है जो लोगो को एक दुसरे की परवाह करना सिखाता है, एक दुसरे को सम्मान देना सिखाता है, और सबसे बड़ी बात की प्यार में इंसान के लिए अपनी ख़ुशी से ज्यादा अहमियत दुसरे की ख़ुशी की हो जाती हैं।

पर हमारा मुख्य मुद्दा ही यही है, की लोग प्रेम का सही अर्थ ही भूल गए हैं। प्यार का मेरे लिए जो अर्थ है वो सामने वाले के लिए नहीं, उसके लिए शायद प्रेम का अर्थ उतना पावन उतना श्रेष्ठ न हो, वो मूवीज और नोवेल्स से प्रेरित हो !! और ज़िन्दगी सिर्फ इतनी सी ही तो नहीं, घर बसाने के सिवा भी बहुत से काम हैं करने को। "और भी काम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।" कभी अपने आस-पास उन लोगो को देखिये जिन्हें दो वक़्त का खाना तक नहीं नसीब होता और फिर मुझे बताइयेगा की आपके पास ज्यादा दुःख हैं या उनके? कभी ऐसे बच्चे का दर्द महसूस करियेगा जो खिलोनो से खेलने की उम्र में किसी ढाबे में काम करते हुए रोज़ अपने मालिक की डांट सुनता हो और फिर मुझे बताइयेगा कि आपका दर्द कितना बड़ा है?  कभी ऐसे दुधमुंहे बच्चे को देखिएगा जिसकी माँ उसे कड़ी धुप में सड़क किनारे लिटाकर गड्ढा खोद रही होती है और फिर मुझसे कहियेगा कि आपको कोई प्यार नहीं करता? कभी उस बूढ़े इंसान के मन के भाव समझिएगा जो कडकडाती ठण्ड में सिर्फ एक फटी हुई शर्ट में खुले आसमान के नीची बैठा रहता है या वो बूढा व्यक्ति जो शायद ढंग से चल नहीं सकता फिर भी रिक्शा चलाता है और फिर मुझे बताइयेगा की आपको कितनी ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है? कभी उस माँ को दिन-रात घर-घर जाकर झाड़ू पोंछा करते और बर्तन मांजते देखिएगा जो सिर्फ अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए पैसे जमा करना चाहती है और फिर मुझसे कहियेगा की आपके पास वक़्त की कमी है?

उस जानवर के दर्द को महसूस करके देखिये जिसे कसाई रोज़ काटता है , उस जानवर की मेहनत देखिये जो तांगा चलता है, ये लोग तो बेवजह अपने मालिक से मार भी खाते हैं और उन्हें कुछ फायदा भी नहीं .......पर खैर वो तो जानवर हैं, पर हम तो इंसान है? आप गर्लफ्रेंड /बॉयफ्रेंड बनाने में इतने व्यस्त हैं या न बना पाने की वजह से इतने दुखी हैं की फर्क ही नहीं पड़ता देश में क्या हो रहा है। जितना फर्क पड़ता है वो बस दोस्तों के साथ बहस में और फेसबुक कमेंट्स तक ही सीमित है। क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता की इससे आगे बढ़कर कुछ करें? कुछ ऐसा जिससे हमारे माता-पिता को हम पर नाज़ हो? हमारे देश को हम पर गर्व हो? और खुद हम लोगो को अपने ऊपर फख्र हो?

एक बार सोचकर देखिएगा ?

-अपराजिता 

July 29, 2012

हम सब जा किधर रहे हैं?

कल मैंने एक बहुत ही अजीब सपना देखा. मैं खुश थी और खिलखिलाकर हंस रही थी....बहुत ही ज्यादा अजीब था. ऐसा शायद बहुत बचपन में कभी हुआ होगा की मैं इतनी ख़ुशी से हंसी हूँ...बहुत देर तक वो सपना मेरे दिमाग में घूमता रहा. मैं सोचती रही की अंतिम बार ऐसा कब रहा होगा की मैं खुश थी. कुछ ठीक से याद नहीं आया और मैं अपने सपने वाली हंसी की खनखनाहट में गुम हो गयी....

सोचने लगी की ये मैं ज़िन्दगी के किस मुकाम पे आ गयी हूँ...जहां हंसी मुझसे कोसों दूर है. सुकून की तलाश में भटक रही थी और उसी को खोती जा रही हूँ. अब ये आलम रहता है की किसी भी बात का कोई असर ही नहीं होता. घर में ख़ुशी का माहौल हो, सब खुश हो, तो भी मैं वही अपनी उलझनों में और घर में सब परेशान हो, तो भी मैं वही अपनी उलझनों में.......मेरे एहसास नहीं बदलते, मेरे चेहरे के भाव नहीं बदलते. 

वो बचपन था जब सपने देख कर भी ख़ुशी मिल जाती थी और अब सपने देखने में भी डर लगता है.  वो बचपन था जब race में जीतने में और क्लास में फर्स्ट आने में ही सफलता का एहसास होता था, आनंद मिलता था. और अब का समय है की एक चीज़ हासिल हो तो उससे बेहतर प़ा लेने की महत्वाकांक्षा बढती जाती है. मैं दिन रात अपने काम में उलझी हुई, लोगो की अलग-अलग तरह की मानसिकताओं को झेलती हुई, अपने परिवार की आशाएं पूरी करने और अपना भविष्य सुरक्षित करने में प्रयासरत होकर ये भूल ही गयी थी की मैं वही हूँ जिसने कभी भी इन चीज़ों में अपनी ख़ुशी को नहीं देखा था.....

फिर आखिर मैं ये किस दिशा में आगे बढती जा रही हूँ? क्या ये उसी मंजिल का रास्ता है जो मैं पाना चाहती थी? जवाब शायद नहीं है, पर फिर क्यों? क्यों मेरा जीवन बस इतने से दायरे में सिमट कर रह गया है?

हाँ मुझे दिन-रात काम में व्यस्त रहना पसंद है, मेरी हमेशा की आदत है. जब तक स्कूल/कॉलेज में थी तो पढाई में व्यस्त रहती थी और जब जॉब मिली तो ऑफिस के काम में डूब गयी. पर सवाल मेरा अब भी वही है की क्या ये उसी मंजिल का रास्ता है? हाँ मुझे खुद को साबित करना था, अपने अस्तित्व के लिए लड़ना था, पर ये रास्ता नहीं चुनना था. इस राह पे बढते हुए खुद को खो देने का डर सताने लगा है. खुद से ज्यादा दूसरों की ख़ुशी ओ अहमियत देते-देते, खुद के अस्तित्व को खो देने का डर सताने लगा है.

अभी व्यस्त हूँ अपने आस-पास की चीज़ों को व्यवस्थित करने में, ताकि फिर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकूं. परन्तु सोचती हूँ की सब कुछ व्यवस्थित करने में कहीं इतनी व्यस्त न हो जाऊं की मैं अपना लक्ष्य ही भूल जाऊं? नहीं, ऐसा तो नहीं होगा. पर क्या ये दायरा कभी इससे बड़ा हो पायेगा? 

अपने आस-पास के लोगो को देखती हूँ, सबको अपनी-अपनी मुश्किलों में उलझा हुआ पाती हूँ. यहाँ हर इंसान रोज़ सुबह अपने घर से अपनी हर परेशानी का हल ढूँढने निकलता है और फिर शाम को कुछ नयी उलझनों के साथ लौट आता है. ये चक्र इसी तरह चलता जा रहा है. सोचती हूँ आखिर हम सब जा किधर रहे हैं? क्या है जो प़ा लेना चाहते हैं? हर इंसान की वही कहानी है और हर इंसान विशिष्ट है. क्या ज़िन्दगी सच में इतनी मुश्किलों से भरी है? क्या इसमें कुछ आसानियाँ नहीं लायी जा सकती? 

शायद हमारे प्रयासों में ही कमी है या हम गलत दिशा में प्रयासरत हैं? 
- अपराजिता   

April 5, 2012

सोच के आयाम

 कभी कभी मैं सोचती हूँ की मैं इतना सोचती ही क्यों हूँ? पर फिर मैं सोचती हूँ की सोचना भी तो ज़रूरी होता है...ज़रूरी तो नहीं की जो सोचा वो सेहत के लिए खराब ही हो? ये तो निर्भर करता है न की हम सोच क्या रहे हैं और कैसे रहे हैं. यदि हमारी सोच  यथार्थ से ज्यादा अच्छी हो तो वो जीवन को एक नयी दिशा दे सकती है. सकरात्मक सोच का असर भी तो सकरात्मक होता है. अगर जीवन में हर क्षण आपको असफलता का ही स्वाद चखने को मिल रहा हो तो सफलता का दिवास्वप्न भी आपके प्रयासों को एक नयी शक्ति दे सकता है. तो ऐसी स्थिति में तो ये सोचना ज़रूरी हो जाता है की सफलता किन प्रयत्नों से मिलेगी. कौन सी ऐसी चीज़ है जो हमने अपने प्रयासों में सम्मिलित नहीं की थी पिछली बार. ज़िन्दगी में एक बात तो मेरे समझ में आई है की किसी भी कार्य की शुरुआत करने के लिए आप किसी भी वक़्त प्रयत्न कर सकते हैं. देर कभी भी नहीं होती है. जैसे की कहा जाता है की शिक्षा के लिए कोई उम्र की बाधा नहीं होती. यदि कोई अनपढ़ है और शिक्षार्जन करना चाहता है तो वो कभी भी शुरुआत कर सकता है. हो सकता है बचपन में उसे उपयुक्त वातावरण न मिल पाया हो या कुछ परेशानियों की वजह से शिक्षित न हो पाए. पर इसका मतलब ये तो नहीं है की जीवन भर अशिक्षित रह जायें? अगर जज्बा है सीखने का और अब उस व्यक्ति के पास इतनी क्षमता है की वो अपना वक़्त दे सके तो ज़रूर ही शुरुआत करनी चाहिए.

पर अक्सर लोग एक  समय के बाद ये धारणा बना लेते हैं की अब तो बहुत देर हो चुकी है. आधी ज़िन्दगी गुज़र ही गयी जब तो बाकी की भी गुज़र ही जाएगी! मुझे लगता है की बाकी की ज़िन्दगी भी इसी तरह गुज़ार देने से तो अच्छा है की उसमे हम कुछ बदलाव लायें. जो गलतियां हुई हो जीवन में अब तक उनसे सीख लेकर और कुछ  नए विचारों को साथ लेकर, एक बार अपने जीवन को एक  नए अंदाज़ में जीने की कोशिश करने में क्या जाता है? इसमें नुक्सान तो कुछ भी नहीं है. हाँ, ज़िन्दगी से कुछ नया सीखने को ज़रूर मिल सकता है और हो सकता है की आपका जीवन पहले से बेहतर हो जाये? और आपको खुद पे गर्व हो की आपने वक़्त रहते अपने जीवन को संवार लिया. आखिर पूरी ज़िन्दगी एक ही ढर्रे पर एक ही रवैय्ये के साथ कैसे गुजारी जा सकती है? बदलाव तो संसार का नियम है. प्रकृति भी बदलती रहती हैं समय के साथ तो हम क्यों नहीं बदल सकते?

कैसा होता अगर प्राकृतिक वातावरण अभी तक वैसा ही रहता जैसे हिम युग में या पाशान काल में था? क्या तब मानव जाति का विकास इसी तरह संभव था? कैसा होता अगर dianasours अभी भी जीवित होते? क्या तब भी मनुष्य इतनी ही तरक्की कर पता? पर ये सब नहीं है अब. क्योंकि बदलाव ज़रूरी थे. और प्रकृति ने खुद को बदला. बदलाव के लिए कोई समय सीमा नहीं तय होती है. जब महसूस हो की ज़िन्दगी सिर्फ एक ही दिशा की ओर बढ़ रही है ओर कुछ नया नहीं हो रहा तो ज़रूरत है किसी बदलाव की जो ज़िन्दगी को और सुन्दर बना सके.

एक वैज्ञानिक सर्वे में ये बात सामने आई की इंसान बचपन में जितना कुछ सीखता है उसका 25% भी बड़े होने के बाद नहीं सीखता. मतलब आपने जितनी भी vocab strong की है अपनी, मुझे विश्वास है की उसमे से 75% शब्दों को आपने बचपन में ही सीखा था. अक्सर लोग बच्चों से कहते रहते हैं की यही उम्र है सीखने की, बच्चे तो कच्ची मिटटी की तरह होते हैं जिस रूप में ढालोगे, वैसे ही बन जायेंगे. बड़े होके सब पक्की मिटटी के खिलोने बन जाते हैं. बदलना ही नहीं चाहते, डरते हैं की टूट जायेंगे?

पर मिटटी के खिलोने में और इंसान में कुछ तो फर्क है? आप कैसे टूट जाओगे? इंसान कोई निर्जीव मिटटी का खिलौना नहीं है. वो सारे जीवों से ज्यादा बुद्धिमान और सुयोग्य है. उसने पूरी धरती पे अपना कब्ज़ा जमाया, हर जानवर को अपने काबू में किया, यहाँ तक की प्रकृति से भी खिलवाड़ किया, विज्ञान के ज़रिये वो अंतरिक्ष पे भी हुकूमत करना चाहता है.... वही इंसान दिल के किसी कोने में अपने आप से जूझ रहा है. अपनी ज़िन्दगी से हैरान परेशान, लकीर का फ़कीर बना हुआ है. दुनिया को बदल देने की हसरत है पर खुद को बदलने से डरता है............

ये सब हमारी सोच के विभिन्न आयाम ही तो हैं. अगर सोच नकरात्मक हो तो वो तो जीवन को नरक के सामान बना ही देगी. आप सोचते रहो को ज़िन्दगी में आपके साथ क्या क्या बुरा हुआ, दोहराते रहो अपनी उन कडवी यादों को की कब कब दुनिया वालों ने आपको धोखा दिया, सोचते रहो की अब तक जीवन में कुछ अच्छा नहीं हुआ तो अब मैं क्या करूँ ? सोचते रहिये, पर सोचने से कुछ नहीं बदलता. बदलाव के लिए प्रयास करने होते हैं, और आप तो प्रयासों से घबराते हैं? डरते हैं की टूट जायेंगे? 

एक बार ये भी तो सोच के देखा जा सकता है न की यदि आपके इस रवैय्ये, इस स्वभाव से जीवन में अब तक कुछ अच्छा नहीं हुआ है, तो क्यों न जीवन को बेहतर बनाने के लिए हम अपने इसी स्वभाव में कुछ बदलाव लायें. यदि जीवन बेहतर हो सका तो आपको खुद पे नाज़ होगा और आप अपने साथ जुड़े और भी कई लोगों की ज़िन्दगी बेहतर बना पाएंगे. यदि कुछ नहीं सुधरेगा तो भी कोई फर्क तो नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि बदलाव के बिना भी आपका जीवन ऐसा ही रहने वाला था. कम से कम ये सुकून तो रहेगा न की आपने ज़िन्दगी से हार नहीं मानी बल्कि उसकी चुनौती को स्वीकारा और अपने जीवन को बेहतर बनाने की एक कोशिश तो की............भले ही आपको उम्र 15 साल हो, 50 साल हो, या 80 हो...........बदलाव की ज़रूरत है तो ज़रूर प्रयास कीजिये कम से कम एक बार...........

एक नन्हा सा दिया बेहतर है अँधेरे से, उसी तरह एक छोटी सी कोशिश करने में क्या जाता है? है न??

अपराजिता 

January 12, 2012

यहाँ दूल्हे ढूँढने नहीं, खरीदने पड़ते हैं!

यहाँ दूल्हे ढूँढने नहीं, खरीदने पड़ते हैं! ये बात मेरे मन में कई बार आती है. मैं ऐसा सोचना नहीं चाहती, कहना भी नहीं चाहती, क्युकी मैं अपने परिवार और समाज के द्वारा बनाये गए रीति रिवाजों का सम्मान करना चाहती हूँ. पर फिर भी जाने अनजाने यही समाज बार बार मुझे यही सोचने पे मजबूर कर देता है. जीवन में जब भी किसी शादी में जाने का मौका  मिलता है तो हर शादी में मुझे यही महसूस होता है की यहाँ लोग दूल्हे खरीदते हैं. अगर आपके पास पैसा है तो आप को कोई अच्छी नौकरी करने वाला और अच्छे परिवार का लड़का बहुत आसानी से मिल जायेगा अपनी बेटी के लिए. (अच्छी नौकरी मतलब बहुत ज्यादा तनख्वाह वाली और अच्छा परिवार मतलब बहुत अमीर, यहाँ अच्छे का मतलब नैतिक मूल्यों से तो नहीं हो सकता). हाँ तो वो अच्छा लड़का और अच्छा परिवार मिलेगा इसीलिए क्युकी आप खूब सारा दहेज़ देकर दूल्हा खरीद सकते हैं !

जब भी मुझे अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी में जाने का अवसर मिलता है तो ये देख कर आश्चर्य से ज्यादा दुःख होता है की लोग आत्म-प्रशंसा करते हुए बहुत बढ़ा चढ़ा कर ये बताते हैं की उन्होंने कितना दहेज़ दिया अपनी बेटी की शादी में. ये उनके लिए status symbol है. हमारे एक relative ने अपनी बेटी की शादी में ११ लाख रुपये दहेज़ में दिए और घर का सामान भी जैसे fridge , वाशिंग मशीन, वगैरह. और उन्होंने ये भी बताया की लड़का बहुत अच्छा है, MCA किया है, उसकी तनख्वाह भी १ लाख रूपया महीना है. मैं सोच रही थी की अगर वो इतना अच्छा है तो इतने सारे पैसे दहेज़ में लेने की ज़रूरत क्यों पड़ी? तो पता चला की वो नहीं विश्वास करता इन सब बातों में, उसके परिवार वालों की इच्छा थी. आखिर बेटे को इतना पढाया लिखाया, वो इतनी अच्छी नौकरी में है, शादी के खर्चे भी हैं, इसीलिए दहेज़ की ज़रूरत पड़ी! तो  दूसरा सवाल मेरे मन में आया की क्या लड़की को पढ़ने लिखने में पैसे खर्च नहीं होते? उस लड़की ने भी तो MCA किया था, नौकरी भी कर रही थी, और उसके परिवार वालों के पास भी तो शादी के अन्य खर्चे थे? फिर लड़के वालों के खर्चे भी वे ही क्यों उठाएं??

पर फिर भी ये सवाल इन लोगों के लिए बेमानी थे. क्योंकि न तो लड़के वालों के पास पैसों की कमी थी और न ही लड़की वालों के पास. एक ने माँगा और दुसरे ने जितनी मांग थी उससे ज्यादा ही दिया. और खूब वाह वाही बटोरी. शादी में आये सभी लोगों ने खातिर दारी की बहुत तारीफ करी और दहेज़ की रकम सुन के सबको आश्चर्य चकित करने का मौका लड़की वालों ने हाथ से न जाने दिया. पर फिर एक अहम् सवाल ये खड़ा हो जाता है की ये तो upper -middle class लोग थे जिन्होंने सारे खर्चे आसानी से उठा लिए. पर साथ ही में उन लोगों ने अन्य लड़के वालों को और ज्यादा दहेज़ की मांग करने के लिए प्रोत्साहित भी किया. और जब बेटी का पिता गरीब हो, middle या lower middle क्लास का हो तो वो लड़के वालों की इन बढती मांगों को कैसे पूरा कर पायेगा?? तो क्या गरीब परिवार की पढ़ी लिखी और सुयोग्य लड़की को भी अच्छा लड़का नहीं मिलेगा शादी के लिए? क्योंकि नौकरी शुदा, पढ़े लिखे लड़के तो बहुत महंगे  हैं! उनसे शादी करवाने के लिए लड़की के पिता को बहुत सारा दहेज़ देना पड़ेगा!  और कोई भी पिता अपनी बेटी की शादी ऐसे लड़के से करवाना नहीं चाहेगा जो नौकरी न करता हो या शिक्षित न हो |

 अभी कुछ दिन पहले किसी ने मुझे अपने किसी दोस्त की कहानी सुनाई की वो गए थे लड़की को देखने, वहाँ उसके पिता हो heart - attack आ गया और उनकी अंतिम इच्छा थी की उनकी बेटी की शादी हो जाये. तो उनकी शादी हो गयी जल्दबाजी में. इस वाकये को सुनाने के बाद मेरे दोस्त का कमेन्ट था "बेचारे फंस गए!" मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?" तो उसने कहा, "उनको शादी करनी पड़ गयी, लड़की पसंद रही हो चाहे नहीं."  मैंने सोचा शादी में लोग सबसे पहले लड़की की फोटो ही देखते हैं, हर तरह से उसके रूप-रंग को लेकर आपस में discuss करते हैं, तभी बात आगे बढती है और लोग लड़की को देखने जाते हैं. फिर इसका क्या मतलब की पसंद रही हो या नहीं? अगर पसंद नहीं थी तो क्या फोटो देख कर नहीं समझ आया था? लड़की को देखने जाने की क्या ज़रूरत थी? वो एक लड़की थी कोई सामान तो  नहीं? तो देखने के बाद ही पता चलता की अच्छी है या नहीं!! और पसंद न आती तो मन कर देते शादी करने से? शायद ये लोग कभी इस बात को नहीं समझ सकते की जब किसी लड़की को देखने के बाद लोग शादी से मन कर देते हैं तो उसके मन पर क्या बीतती है!! आखिर उसकी भी तो भावनाएं होती हैं. उसे तो लड़के को देख कर पसंद या नापसंद करने का मौका नहीं दिया जाता? क्यों? क्योंकि वो लड़की है और उसके परिवार वाले किसी भी लड़के से उसकी शादी करने को तैयार हैं, बस वो पसंद कर ले? शायद इसी वजह से दूसरों को और बढ़ावा मिलता है लड़की को नापसंद करने का?

अपना घर छोड़कर एक अनजान परिवार में अनजान लोगों के बीच तो लड़की को जाना पड़ता है. ज़िन्दगी तो उसकी दाँव पे लगती है. तो उसे ये हक़ क्यों नहीं दिया जाता है की वो लड़के की फोटो देख कर उसे पसंद करे, उसके परिवार को जांचे परखे और फिर शादी के लिए हाँ या न करे?

देखा ये भी गया है की जो लोग दहेज़ की मांग करते हैं और लड़की के परिवार वाले उनकी मांगों के हर तरह से कहीं से भी उधार लेकर सम्बन्धियों से मांगकर पूरा कर देते हैं, तो उनकी दहेज़ के प्रति लालसा और बढ़ जाती है. वो शादी से पहले ही नहीं, शादी हो जाने के कई साल बाद तक भी किसी न किसी बहाने से कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं!! ऐसे लोगों को एक बार ये ज़रूर सोचना चाहिए की जिस लड़की को वो अपने परिवार का हिस्सा बनाकर लाये हैं, अगर उसके परिवार वालों को दहेज़ के लिए इतना परेशान किया जायेगा, तो क्या वो लड़की कभी उनके परिवार को, अपने ससुराल को मन से अपना पाएगी? क्या वो अपने ससुर को वो इज्ज़त दे पायेगी जो अपने पिता को देती है? ये जानते हुए की उसके ससुरजी ने उसके पिता को क़र्ज़ लेने को मजबूर कर दिया? क्या वो कभी इस परिवार को अपना परिवार मान पायेगी? जहां उसके परिवार के लोगों को परेशान किया गया हो? उनकी गरीबी का मज़ाक उड़ाया गया हो लड़की का पिता होने का दंड दिया गया हो??

अगर अपने बेटे क लिए अच्छी लड़की ढूंढनी ही है तो फोटो देखकर उसकी सुन्दरता का आंकलन ही क्यों किया जाता है केवल? क्या सुन्दरता से ये बात सिद्ध हो जाती है की लड़की सुयोग्य भी होगी? और उसके रंग रूप का आंकलन करेती वक़्त ज़रा एक बार खुद भी आइना देख लें तो बेहतर नहीं होगा? फिर उस लड़की को भी ये हक़ होना चाहिए के वो लड़के का भी उसी प्रकार निरीक्षण करे? की वो सुन्दर है या नहीं? उसका जीवनसाथी बनने काबिल है या नहीं? उसे ज़रूरत पड़ी तो घर के काम कर सकेगा या नहीं? और अगर लड़की इतना दहेज़ लेकर (इतना पैसा देकर) लड़के को अपना रही है तो ये सब जानना तो अधिकार है उसका!!

अजीब लगता है जब इस तरह विवाह करने वाले लोग विवाह पश्चात भी सुखी नहीं रह पाते हैं तो. जब अपनी बहु की बुराई करते हैं, रिश्तेदारों से उसकी कमियाँ गिनाते हैं तो, शादी के वक़्त तो वही बहुत अच्छी लगी थी? क्योंकि बहुत सारा दहेज़ लेकर आ रही थी? अब क्या बदल गया? यही की वो हर रोज़ कुछ अपने मायके वालों से मांग कर क्यों नहीं लाती? ऐसे लोगों के बेटे भी अगर माता-पिता के पास नहीं आते मिलने के लिए या घर के खर्चों में हाथ नहीं बंटते तो भी दोष बहु का ही होता है? क्यों? दहेज़ की मांग करते वक़्त ये सब बातें तो तय नहीं हुई थी? फिर? अब क्यों आस लगायी जा रही है??

मैं ये नहीं कह रही की इस दुनिया में सभी लोग ऐसा करते हैं. दुनिया में सब एक जैसे नहीं होते. कई लोगों के अनुभव इससे अलग होंगे. कुछ लोग दहेज़ विरोधी भी होते हैं जो अपने बेटे-बेटियों की शादी बिना दहेज़ लिए और दिए करते हैं. पर फिर भी ये रीति इतनी मजबूती से हमारी जड़ों को जकड रही है की डर लगता है, ये समाज को खोखला न कर दे? सबके लिए अभिशाप न बन जाये. अधिकता हर चीज़ की बुरी होती है. पहाड़ की ऊंचाई देखकर बहुत अच्छी लगती है पर उसपे पहुचने के बाद जीना उतना ही मुश्किल हो जाता है. ऊंचाई पे पहुँचने के बाद फिर नीचे आना ही पड़ता है. पेड़ का तना कितना भी मजबूत हो पर अगर जड़ ही कमज़ोर हो जाएगी तो वो भी ज्यादा दिन खड़ा नहीं रह सकता.....और हम तो अपने लिए खुद ही पतन का रास्ता तैयार कर रहे हैं? क्या आपको ऐसा नहीं लगता??



अगर नहीं लगता, तो हमें एक और ब्लॉग पोस्ट लिखनी होगी. इंतज़ार कीजिये हमारी अगली पोस्ट का, :( :(

Ads 468x60px

Featured Posts